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मोक्षतत्वनिरूपण
समाधि, साधु सेया, अर्जन्त आचार्य यहचत और प्रवचनम भक्ति, आवश्यक क्रियाओंमें मश्वद्ध निगलन्य प्रवनि, शासन प्रभावना, प्रवचन वात्मन्य आदि मोलह भावना जगदुबारक नोकर प्रकृतिक आमवका कारण होती है। इनमें सम्यग्दर्शनके साथ होने वाली जगददार की ती भावना हो मुरूप है।
नीचगोत्र—परनिन्दा, आत्मप्रशंसा. परगविलोप, अपने अधिद्यमान मावा प्रख्यापन, जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, शानमद, दययंमद, तपामद, परापमान. पाकरण, पगारवाछुतकिरकार मालकी सुविधिसमार जी सवाद्भावन. गुण विभंदन, गांको स्थान न बना भर्मना करना, स्तुति न करना, विनय न करना. उनका अपमान करना. आदि नीचगोपके आवक कारण।
उच्चगोत्र—पर प्रशंसा, आत्मनिन्दा, पर सद्भणोद्भावन, ग्वसद्गुणाच्छादन. नोवृति-नप्रभाव, निर्मद भाव #प अनुत्सेक, परवा अपमान हाम पग्बिाद न करना, मनुभाषण आदि उच्चगोत्र श्राम वक कारण होते हैं।
अन्नराय- दसराक दान न्याम भो| उपभोग और वीर्यम विन करना. दानको निन्दा करना, देवव्य का भक्षण, परवीयर्यापहरण. बर्मोभनोट, अधर्माचरण गनिरोध, बन्धन, कर्णछदन, गायन, न्द्रिय विना: आदि विघ्नकारक विगर और क्रियाएँ अन्तराय कर्मका आरव कराती हैं।
सारांण यह कि इन गवामे उस उन काँकी स्थिनिबन्ध और अन भागवन्ध विशेष रुपमे होना। वैसे आयुके मित्राय अन्य सान कर्मोपा आस्रव न्यनाधिक भावये प्रतिममय होना रहता है । आयका आत्र व आयुके विभागम होता है।
मोक्ष--बन्धनमवितको मोक्ष का है। अन्यत्र कारणांका प्रभाव होने पर नया गंचित नमागे निर्जरा होनेपर ममम्न कोंका समाल उर होना माना है। आत्माकी भाविकी विनवा मंमार अवस्थाम विभाव परिणमन हो रहा था। विभाव परिणमन निमिन हट जानसे मोक्षदगाम उमका स्वभाव पग्निन हो जाता है। जी आमा गण विकर हो
र ही स्वाभाविक दमाम आ जाते हैं। मिथ्यावर्शन सम्दग्दर्शन मन जाता है. अमान ज्ञान और अनाग्त्रि बारित्र । तात्पर्य यह कि आत्मा का साग नकशा ही बदल जाता है। जो आत्मा मिथ्याशनादि रूपने अनादिकालमे अगद्धिका पूज बना हुआ था यही निर्मल निदनल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका श्राग मदा मत परिणमन ही होता है। वह तन्य निरिकन है। वह निम्तरंग ममत्र की तरह निर्विकल्प निश्चल और निर्मल है। न लो निर्वाण दगम आमात्रा अभाव होता है और न बह अचान ही हो जाता है। जन आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है तब उसका अभाव हो । नहीं सकता। उसमें परिवर्तन कितने ही हो जाय पर अभाव नही हो सकता। किमीकी भी यह सामथ्र्य नहीं जो जगत के किमीभी एक सतका गमल उच्छेद कर सके।
बुद्धसे जब प्रश्न किया गया कि-'मरने के बाद तथागत होते हैं या नहीं जा उनने इस प्रश्नको असा. कृत कोटिम डाल दिया था । यही कारण हुआ कि वृद्धके शिष्यानं निर्वाणके विषयमं दो तरहको कल्पना कर डालीं। एक निर्वाण वह जिसमें चिन सन्तति निराम्पत्र हो जाती है और दुराग निर्वाण वह जिसमें दीपवर. समान चित्त सन्तति भी बन जाती है अर्थात उसका अस्तित्व ही समाप्त ो जाता है। * दवा विज्ञान संझा और संस्कार इन पनि कन्ध रूप ही आत्माको मानने का यह महज परिणाम था कि निर्वाण दगामं जाका अस्तित्व न रहे। आरचर्य है कि बद्ध निर्माण और आत्मा परलोकगामित्वका निर्णः बनाए निना ही दुःख निवृत्तिके उपदेशक सर्वांगीण औचित्यका गमन करते रहे। यदि निर्वाण चिनमन्नतिका निरोध हो जाता है, वह दीपक की तरह वझ जातो है अर्थात अस्तित्वशन्य हो जाती तो उच्छेदत्रादक दोषसे बुद्ध कैसे बचे? आत्माकं नास्तित्वसे इनकार तो इसी भयमे करले थे कि यदि आत्माको नास्ति कहत हैं तो उच्छेदवादका प्रसंग आना है और अस्ति कहते हैं तो शाश्वतवावका प्रसंग आता है। निर्माणा. वस्थामें उच्छेद मानने और मरणके बाद उच्छेद माननेम तन्वदृष्टिग कोई विशप अन्तर नहीं है । बल्कि चार्वात का सरल उच्छेद सबको सुकर क्या अवस्नसाध्य होनेरी सहजग्राह्य होगा और युद्धका निर्वाणोसर उच्छेद