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________________ ! ३६ तस्यार्थवृति प्रस्तावना ? ये प्रश्न मानव मस्तिष्कको आन्दोलित करते रहते है। इन्हीं प्रश्नोंके समाधानमें जीवन का लक्ष्य क्या है धर्मकी आवश्यकता क्यों है ? आदि प्रश्नोंका समाधान निहित है। सम्यक्दर्शन एक क्रियात्मक शब्द है, अर्थात् सम्यक् - अच्छी तरह दर्शन देखना । प्रश्न यह है किदेखना, किसको देखना और कैसे देखना ।' 'क्यों देखना तो इसलिए कि मनुष्य स्वभावतः मननशील और दर्शनशील प्राणी होते हैं। उनका मन यह तो विचारता ही है कि यह जीवन क्या है क्या जन्मसे मरतक ही इसकी धारा है या आगे भी ? जिन्दगीभर जो अनेकों और संघर्ष से जूझना है वह किस:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज. लिए? अतः जब इसका स्वभाव ही मननशील है तथा मामों मत प्रचारक मनुष्यको वस्तु स्वरूप दिखाते हुए चारों ओर घूम रहे हैं, 'धर्म इवा, संस्कृति हुबी. धर्म की रक्षा करो, संस्कृतिको बचाओ' आदि धर्मप्रचारकोंके नारे मनुष्य के कानकेक फट रहे हैं तब मध्यको न चाहने पर भी देखना तो पड़ेगा ही यह तो करीब करीब निश्चित ही है कि मनुष्य या कोई भी प्राणी अपने लिए ही सबकुछ करता है, उसे सर्वप्रिय वस्तु अपनी ही आत्मा है। उपनिषदोंमें आता है कि "आत्मनो कामाय सर्व प्रियं भवति।" कुछ स्त्री पुत्र तथा शरीरका भी यह अपनी आत्माकी टिकेलिए किया जाता है। अतः 'किसको देखना इस प्रश्न का उत्तर है कि सर्वप्रथम उस आत्माको हो देखना चाहिए जिसके लिए यह राव कुछ किया जा रहा है, और जिसके न रहने पर यह सब कुछ व्यर्थ है, वही आत्मा है, उसीका अभ्यदर्शन हमकरना चाहिए कैसे देखना इस प्रश्न का उत्तर धर्म और सम्यदर्शन का निरूपण है। 1 जनाजाति 'वत्थुस्वभावो धम्मो यह धर्मकी अन्तिम परिभाषा की है। प्रत्येक वस्तुका अगना निज स्वभाव ही धर्म है तथा स्वभावत होता अधर्म है। मनुष्यका मनुष्य रहता धर्म है पशु बना अधर्म है। आत्मा जब तक अपने स्वरूपने धर्मात्मा है, जरूरी न हुआ अथमा बना। अतः जब स्वरूपस्थिति ही धर्म है तब धर्मकेलिए भी स्वरूपका जाना गितान्न आवश्यक है। वह भी जानना चाहिए कि आत्मा स्वरूप क्यों होता है जलना गरम होना उसकी स्वरूपच्युति है. एतावता यह अधर्म है पर जल चूंकि जट है, अतः उसे यह मान ही नहीं होता कि मेरा स्वरूप नष्ट हो गया है। जैन तत्वज्ञान तो यह कहता है कि जिस प्रकार अपने स्वरूपसे च्युत होना अधमें है उसी प्रकार दूसरेका स्वरूप च्युत करना भी अब स्वयं को करके शान्तस्वरूपसे च्युत होना जितना अधर्म है उतना ही दूसरे के शान्तस्वरूपमें विघ्न करके उसे स्वरूपच्युत करना भी धर्म है। अतः ऐसी प्रत्येक विचार बारा, वचनप्रयोग और शारीरिक प्रवृत्ति अत्र हैं जो अपनेको स्त्ररूपच्युत करती हो या दुसरेकी स्वपच्युतिका कारण होती हो । स्वरूप और स्वाधिकारको मर्यादाका अज्ञान । स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं। प्रत्येक अपने स्वरूप में उपादानके अनुसार होकर भी दूसरेके निमित्तसे प्रभा परिपूर्ण है। इन सबका परिणमन मूलतः अपने दिन होता है। अनन्त अनन द्रव्यांका अर्थात संयोगोंके आधारसे स्वरसतः परिणमन होना रहना आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण नगर अनन्त अचेतन और अनन्न वेतन द्रव्य अपना पर होनेके कारण उनमें वृद्धिपूर्वक पिया नहीं हो सकती जंगी जैसी सामग्री जुटती जाती है गंगा गंगा उनका परिणमन होता रहता है। मिट्टी यदि विप पड़ जाये तो उसका विषरूप परिणमन ही जाता मदिधार पड़ जाय तो सारा परिणमन है। जायगा चैतन द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें बुद्धिपूर्वक ही है। ये अपनी प्रवृतिनो बुद्धिपूर्वक हो साथ ही साथ अपनी बुद्धिके अनधिकार आयोग के कारण दूसरे अपने अधीन करनेष्टा भी करते हैं। यह सही है कि जबतक आत्मा या गरीबक उन पदायकी आवश्यकता होगी और वह परपदार्थोंने बिना जीवित भी नहीं रहना पर इस अनिवार्यस्थिनिमं भी उसे यह सम्यदर्शन तो होना ही चाहिए बिद्यपि आज मेरी अशुद्ध दशादि होनेके कारण नितान्त पर स्थिति और के लिए यत्किचित् परम आवश्यक है पर मेरा निसर्गतः परद्रव्यांपर कोई अधिकार नहीं है
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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