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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार
[ २।३१-३२
एक मोड़ा सहित पाणिमुक्ता गति में जीव प्रथम समय में अनाहारक रहता है और द्वितीय समय में आहारक हो जाता है ।
दो मोड़ा युक्त लाङ्गलिका गतिमें जीव दो समय तक अनाहारक रहता है और तृतीय समय में श्राहारक हो जाता है। तीन मोदा युक्त गोमूनिका गांव में जीव तीन समय तक अनादार रहता है और चौथे समय में नियमसे आहारक हो जाता है। ऋद्धिप्राप्त यतिका आहारक शरीर श्राहार युक्त होता है। जन्म के भेद
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सम्मूर्छन गर्भोपपादा जन्म ॥ ३१ ॥ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
संसारी जीवों के जन्म के तीन भेद है-संमुच्छन, गर्भ और उपपाद ।
माता-पिता के रज और वीर्य के बिना पुल परमाणुओं के मिलने मात्र से ही शरीर की रचनाको संमूर्च्छन जन्म कहते हैं ।
माता के गर्भ में शुक्र और शोणितक मिलने से जो जन्म होता है उसको गर्भ जन्म कहते हैं अथवा जहाँ माता के द्वारा युक्त आहारका ग्रहण हो वह गर्भ कहलाता है। जहाँ पहुँचते ही सम्पूर्ण अह्नों की रचना हो जाय वह उपपाद है । देव और नारकियों के उत्पत्तिस्थानको उपपाद कहते है |
योनियों के भेद
सचिराशीत संवृतः सेतरा मिश्राचैकशस्तयोनयः ||३२||
सचित्त, शीत, संवृत, अचित्त, उष्ण, विवृत और सचित्ताचित्त, शीतोष्ण, संवृतत्रिवृतये नौ संमूर्च्छन आदि जन्मों की योनियाँ हैं ।
च शब्द समुच्चयार्थक है । अर्थात् उक योनियाँ परस्पर में भी मिश्र होती हैं और मिश्र योनियाँ भी दूसरी यानियों के साथ मिश्र होती हैं ।
योनि और जन्म में आधार और आधेय की अपेक्षासे भेद है। योनि आधार हैं और जन्म आधेय हैं।
साधारण वनस्पतिकायिकों के सचित्त योनि होती है. क्योंकि ये जीव परस्पराश्रय रहते हैं । नारकियों के अचित्त योनि होती है, क्योंकि इनका उपपाद स्थान अचित्त होता है । गजों के सचित्तावित्त योनि होती है, क्योंकि शुक्र और शोणित अचित्त होते हैं और आत्मा अथवा माता का उदर सचित्त होता है। वनस्पति कायिक के अतिरिक्त पृथिव्यादि कायिक संमूच्छं नोंक अचित्त और मिश्र योनि होती है। देव और नारकियों के शीतोष्णयोनि होती है क्योंकि उनके कोई उपपादस्थान शीत होते हैं और कोई कण | तेजः कायिकों के उष्णयोनि होती है अन्य प्रथिव्यादि कायिकों के शीत, उष्ण और शीतोष्ण योनियाँ होती हैं। देव नारकी और एकेन्द्रियों के संवृत योनि होती है। विकलेन्द्रियोंके विद्युत योनि होती है । गर्भजोंक संवृतविवृत योनि होती हैं।
योनियोंक उत्तरभेद चौरासी लाख होते हैं-नित्य निगोद, इतर निगोद, पृथिवी, अपू तेज और वायुकायिकों में प्रत्येक के सात सात लाख ६x४=११, बनस्पति कायिकों के दश लाख, विकलेन्द्रियों में प्रत्येकके दो लाख २४३ = ६, देव, नारकी और तिर्यञ्चमं प्रत्येकवे चार चार लाख ३४१-१२ और मनुष्यों के चौदह लाख योनियाँ होती हैं । इस प्रकार ४२+१०+६+१२+१४०८४ लाख योनियाँ होती हैं।