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२।२८-३०] द्वितीय अध्याय
३७३ वती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः' सूत्र में संसारी शब्द आनेसे इस सूत्र में मुक्त जीवका ही ग्रहण करना चाहिये।
___ 'अनुश्रेणि गतिः' इसी सूत्रसे यह सिद्ध हो जाता है कि जीव और पुदलोंकी गति श्रेणीका व्यतिक्रम करके नहीं होती है अतः 'अविग्रहा जीवस्य' यह सूत्र निरर्थक होकर यह बतलाता है कि पहिले सूत्रमें बतलाई हुई गति कहीं पर विश्रेणि अर्थात् श्रेणीका उल्लंघन करके भी होती है।
___ संसारी जीवकी गतिविग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्म्यः ।। २८ ॥ संसारी जीवकी गनि मोड़ा सहित और मोड़ा रहित दोनों प्रकारकी होती है और प्रासमय वाक्यायो अहिलेषाक्षिाचीर बायहाँलाई ।
संसारी जीवोंकी विग्रहरहित गतिका काल एक समय है। मुरु जीवोंकी गतिका काल भी एक समय है। विग्रह रहित गतिका नाम इयु गति है। जिस प्रकार वाणकी गति सीधी होती है। उसी प्रकार यह गति भी सीधो होती है।
एक मोड़ा, दो मोड़ा और तीन मादावाली गतिका काल क्रमसे दो समय, तीन समय और चार समय है।
एक मोड़ाषाली गतिका नाम पाणिमुक्ता है। जिस प्रकार हाथसे तिरछे फेके हुए दृष्यं की गति एक मोड़ा युक्त होती है, उसी प्रकार इस गतिमें भी जीवको एक मोड़ा लेना पड़ता है। दो मोड़ावाली गतिका नाम लाङ्गलिका है । जिस प्रकार हल दो ओर मुड़ा रहता है उसी प्रकार यह गति भी दो माड़ा सहित होती है। तीन मोडाबाली गतिका नाम गाभूत्रिका है । जिस प्रकार गायके मूत्रमें कई मोड़े पड़ जाते हैं, उसी प्रकार इस गतिमें भी जीवको तीन मोड़ा लेने पड़ते हैं।
इस प्रकार मोड़ा लेनेमें अधिकसे अधिक तीन समय लगते हैं। गोमूत्रिका गतिमें जीव चौथे समयमें कहीं न कहीं अवश्य उत्पन्न हो जाता है।
यद्यपि इस सूत्र में समय शब्द नहीं आया है किन्तु आगेके सूत्रमें समय शब्द दिया गया है अतः यहाँपर भी समयका ग्रहण कर लेना चाहिये ।
विग्रह रहित गतिका समय--
एकसमयाऽविग्रहा ।। २३॥ मोड़ार हित गतिका काल एक समय है । गमन करनेवाले जीव और पुद्गलोंकी लोक पर्यन्त गति भी व्याधातरहित होनेसे एक समयवाली होती है।
विग्रह गतिमें अनाहारक रहनेका समय
एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ॥३०॥ विग्रहगति में जीव एक, दो या तीन समय तक अनाहारक रहता है।
औदारिक, क्रियिक, और आहारक शरीर तथा छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्रल परमाणुओं के ग्रहण को आहार कहते हैं। इस प्रकारका आहार जिसके न हो वह अनाहारक कहलाता है। विग्रह रहित गतिमें जीय आहारक होता है।