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तत्त्यार्थशि हिन्दी-माचार्य श्री सुविहिासागरी जी महाराज असंज्ञी हात हैं । संज्ञियों के शिक्षा, शब्दार्थग्रहण आदि क्रिया होती है । यद्यपि असंज्ञियां के आहार, भय मैथुन और परिग्रह ये चार मंज्ञा होती हैं तथा इच्छा प्रवृत्ति आदि होती हैं। फिर भी शिक्षा, शब्दार्थग्रहण आदि किया न होने से वे संज्ञो नहीं कहलाते।
विग्रहगनिमें गमन के कारणको बतलाते हैं
विग्रहगती कर्मयोगः ॥२५॥ विप्रगतिमें कार्मण काययोग होता है। विग्रह शरीरको कहते हैं। नवीन दारीरको ग्रहण करने के लिये जो गति होती है वह विग्रहगान है। आत्मा एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको ग्रहण करनेके लिचे कार्मण काययोगके निमित्त से गमन करता है।
अथवा विरुद्ध ग्रहणको विग्रह कहते हैं अर्थात कर्मका ग्रहण होने पर भी नोकर्म हैं के अग्रणको विग्रह कहते हैं। और विग्रह होनस जो गति होती है वह विप्रगति कहलाती है।
सर्वशरीरके कारणभूत कार्मण शरीरको कर्म कहते है। और मन, वचन, काय वर्गणा निमित्त होनेवाल आत्माकं प्रदेशोंके परिस्पन्द का नाम योग है। अर्थान विग्रह रूपसे गति होने पर कांका आदान और देशान्तरगमन दोनों होते हैं।
जीत्र और पुद्गल के गमनक प्रकारको बतलाते हैं
अनुश्रीण गतिः ।।२।। ___जीव और पुद्गलका गमन श्रेणीक अनुसार होता है। लोकके मध्यभागये ऊपर, नांचे तथा निर्यक दिशामें क्रमसे सन्निविष्ट आकाशक प्रदेशोंको पंक्तिको श्रेणी कहते हैं।
प्रश्न-यहाँ जोर द्रव्यका प्रकरण होनेसे जीवकी गतिका वर्णन करना तो ठीक है लकिन पुद्गलकी गतिका वर्णन किस प्रकार संगत है ?
उत्तर-'विग्रहगतो कर्मयोगः' इस सूत्रमें गतिका ग्रहण हो चुका है। अतः इस सूत्र में पुनः गतिका ग्रहण, और आगामी 'अविग्रहा जीवस्य' सूत्र में जीव शब्दका ग्रहण इस चातको बतलाते हैं कि यहाँ पुगलकी गतिका भी प्रकरण है।
प्रश्न-ज्योतिषी देयों तथा मेरुकी प्रदक्षिणाके समय विद्याधर आदिकी गति श्रेणीके अनुसार नहीं होती है। अतः गतिको अनुश्रेणि बतलाना ठीक नहीं हैं।
___ उत्तर-नियत काल और नियत क्षेत्र में गति अनुश्रेणि बतलायी है। कालनियम-- संसारी जीवोंकी मरणकालमें भवान्तर प्राप्तिक लिये और मुक्त जीवोंकी ऊर्ध्वगमन कालमें जो गति होती है वह अनुश्णि ही होती है। देशनियम-ऊबलोकसे अधोगति, अधोलोकसे ऊर्ध्वगति, तिर्यग्लोकसे अधोगति अथवा ऊर्ध्वगति अनुश्रेणि ही होती है।
पुलोंकी भी जो लोकान्त तक गति होती है वह अनुश्रेणि ही होती है । अन्य गति का कोई नियम नहीं है।
मुक्त जीव की गति
अविग्रहा जीवस्य ॥ २७ ।। मुक्त जीवकी गति विग्रहरहित अर्थात् सीधी होती है । माड़ा या वक्रताको विग्रह कहते हैं । यद्यपि इस सूत्र में सामान्य जीवका ग्रहण किया गया है, फिर भी आगामी "विग्रह