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________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३७१ २०१८-२४] द्वितीय अध्याय भावेन्द्रियका स्वरूप-- लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥१८॥ लरिध और उपयोगको भावेन्द्रिय कहते हैं । आत्मामें झानावरण कर्म के अन्योपशमसे होनेवाली अर्थग्रहण करनेकी शक्तिका नाम लब्धि है। आत्माके अर्थको जाननेके लिए जो व्यापार होता है. उसको उपयोग कहते हैं। यद्यपि उपयोग इन्द्रियका फल है फिर भी कार्य में कारणका उपचार करके उपयोगको इन्द्रिय कहा गया है। इन्द्रियोंके नामस्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि ।।१९।। स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ होती है। इनकी व्युत्पत्ति करण तथा कर्तृ दोनों साधनों में होती है। इन्द्रियोंके विपय स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ स्पर्श, रस, गन्ध, वणं और शब्द ये क्रमसे उक्त पांच इन्द्रियोंके विषय होते हैं । मनका विपय श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ अनिन्द्रिय अर्थात् मनका विषय श्रुत होता है । अस्पष्ट ज्ञानको श्रुत कहते हैं। अथवा श्रुतज्ञानके विषयभूत अर्थको श्रुत कहते हैं। क्योंकि श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोप शम हो जाने पर श्रुतज्ञानके विषय में मनके द्वारा आत्माकी प्रवृत्ति होती है। अथवा 'श्रुतज्ञान को श्रुत कहते हैं। मनका प्रयोजन यह श्रुतझान है। इन्द्रियों के स्वामी वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक, यायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंके एक स्पर्शन इन्द्रिय होती है। क्योंकि इनके वीर्यान्सराय और स्पर्शन इन्द्रियारणका क्षयोपशम हो जाता है और शेप इन्द्रियोंके सर्वघातिस्पद्धकोंका उदय रहता है । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ कृमि श्रादिके दो, पिपीलिका आदिके तीन, भ्रमर आदिके चार और मनुष्य आदिक पाँच--इस प्रकार इन जीवोंके एक एक इन्द्रिय बढ़ती हुई है। ___ पञ्चेन्द्रिय जीवके भेद संज्ञिनः समनस्काः ॥२४॥ मन सहित जीव संज्ञी होते हैं । इससे यह भी तात्पर्य निकलता है कि मनरहित जीय असंझी होते हैं। एकेन्द्रियसे चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीव और सम्मूर्च्छन पंचेन्द्रिय जीव
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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