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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[२१५-१७ चीता आदि । गाय,भैंस,मनुष्य आदि जरायिक कहलाते हैं, क्योंकि गर्भ में इनके ऊपर मांस
आदिका जाल लिपटा रहता है। शराब आदिमें उत्पन्न होनेवाले कीड़े रसायिक है अथवा रस नामको धातु में उत्पन्न होनेवाले रसायिक हैं। पसीनेसे उत्पन्न होनेवाले जीव संस्वेदिम कहे जाते हैं । चक्रवती आदिकी कांसमें एसे सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं । समूचनसर्दी, गर्मी, वर्षा आदिके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले सर्प,चूहे आदि समूच्छिम हैं। कहाभी है-- बीर्य, खकार, कान, दाँत आदिका मैल तथा अन्य अपवित्र स्थानों में तत्काल संमूर्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं । पृथिवी, काठ, पत्थर आदिको भेदकर उत्पन्न होनेवाले जीप उद्वेदिम कहताते हैं । जैसे रत्न या पत्थर आदिको चीरनेसे निकलनेवाले मेंढक । देव और नारकियोंके उपपाद स्थानों में उत्पन्न होने वाले देव और नारकी जीव उपपादिम कहलाते है । इनकी अकालमृत्यु नहीं होती है।
द्वीन्द्रियके स्पर्शन ओर रसनेन्द्रिय, काय और वाग्बल तथा आयु और श्वासोच्छ्वास इस प्रकार छह प्राण होते हैं। श्रीन्द्रियके घ्राणेन्द्रिय सहित सात प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रियके चक्षुइन्द्रिय सहित आठ प्राण होते हैं । असंशी फळचेन्द्रियके श्रोत्रेन्द्रिय सहित नष प्राण होते है । और संज्ञी फचेन्द्रियके मन सहित दस प्राण होते हैं।
इन्द्रियों की संख्या
पञ्चेन्द्रियाणि ॥१५॥ स्पर्शन, रसना, प्राण, 'चक्षु और श्रोत्रके भेदसे इन्द्रियों पांच होती है। कर्मसहित जीव पदार्थों को जानने में असमर्थ होता है अनविनाको जानने में सहायक होती है।
यहां उपयोगका प्रकरण है. अतः उपयोगके साधनभुत पांच ज्ञानेन्द्रियोंका ही यहां ग्रहण किया गया है । वाक , पाणि, पाद आदिके भेदसे कर्मेन्द्रिय के अनेक भेद है । अत: इस सूत्र में पांच संख्यासे सांख्यकं द्वारा मानी गई पांच कर्मेन्द्रियोका ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि शरीरके सभी अवयव क्रिया के साधन होनेसे कर्मेन्द्रिय हो सकते हैं इसलिए इनकी कोई संख्या निश्चित नहीं की जा सकती।
इन्द्रियों के भेद--
द्विविधानि ॥ १६ ॥ द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रियके भेदसे प्रत्येक इन्द्रियके दो दो भेव होते हैं।
द्रव्येन्द्रियका म्वरूप---
निवृत्त्युपकरपणे द्रव्येन्द्रियम् ।। १७ ।। निति और उपकरणको द्रव्येन्द्रिय कहते हैं। इनमें से प्रत्येकके अभ्यन्तर और बाह्य के भेदसे दो दो भेद हैं।
चनु आदि इन्द्रियकी पुतली आदिके भीतर तदाकार परिणत पुद्गल स्कन्धको बास निर्वृत्ति कहते हैं । और उसंधांगुलके असंख्यात भागप्रमाण आत्माके प्रदेशोंको जो चक्षु
आदि इंद्रियों के आकार हैं तथा तात् ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे विशिष्ट है, आभ्यन्तर निईत्ति कहते हैं।
चक्षु आदि इन्द्रियों में शुक्ल, कृष्ण आदि रूपसे परिणत पुद्गलपचयको आभ्यन्तर रुपकरण कहते हैं। और अक्षिपक्ष्म आदि बाह्य उपकरण हैं।