SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४] द्वितीय अध्याय मार्गमें पड़ी हुई धूलि आदि पृथिवी है। पृथियोकायिक जीवके द्वारा परित्यक्त इंद आदि पृथिवीकाय है। पृथिवी और पुथिवीकायके स्थायर नामकर्मका उदय न होनेसे वह निर्जीव है, अतः उसकी विराधना नहीं होती। जिसके पृथिवीकाय विद्यमान हैं यह पृथिवीकायिक है। जिसके पृथिवी नामकर्मका उदय है लेकिन जिसने पृथिवीकायको प्राप्त नहीं किया है ऐसे विग्रह गति में रहनेवाले जीवको पृथिवीजीव कहते हैं। पृथिवीके मिट्टी, रेत. कंकड़, पत्थर, शिला, नमक, लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हीरा, हरताल, हिंगुल, मनःशिला, गेरू, तूतिया, अंजन प्रवाल, अभ्रक, गोमेद, राजवर्तमणि, पुलकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, वैयर्माण, चन्द्रकान्त, जलकान्त, सूर्यकान्त, गैरिकमणि, चन्दनमणि, मरकतमणि, पुष्परागमणि, नीलमणि, विद्रुममणि आदि छत्तीस भेद हैं । बिलोहा गया,इधर उधर फैलाया गया और छाना गया पानी जल कहा जाता है। जलकायदाकासे अमावाश्रीनहाकया हुआ पानी जलकाय है। जिसमें जलजीव रहता है उसे जलकायिक कहते हैं। विग्रहगतिमें रहने वाला वह जीव जलजीव कहलाता है जो आगे जलपर्यायको ग्रहण करेगा। इधर उधर फैली हुई या जिसपर जल सींच दिया गया है या जिसका बहु भाग भस्म वन सुका है ऐसी अग्नि को अग्नि कहते हैं । अग्निजीवके द्वारा छोड़ा गई भस्म आदि अग्निकाय कहलाते हैं। इनकी विराधना नहीं होती। जिसमें अग्निजीच विद्यमान हैं उसे अग्निकायिक कहते हैं। विग्रहगति में प्राप्त वह जीव अग्निजीय कहलाता है जिसके अग्निनामकर्मका उदय है और आगे जो अग्नि शरीरको ग्रहपा करेगा। जिसमें घायुकायिक जीव आ सकता है गेसी वायुको अर्थात् केवल वायुको वायु कहते हैं । वायुकायिक जीवके द्वारा छोड़ी गई, वीजना आदिसे चलाई गई हया वायुकाय कहलाती है। वायुजीव जिसमें मौजूद है ऐसी वायु यायुकायिक कही जाती है। त्रिग्रहगति प्राप्त, वायुको शरीर रूपसे ग्रहण करने वाला जीव वायुजीव है। छेदी गई, भेदी गई या मर्दित की गई गीली लता आदि वनस्पति हैं । सूखी वनस्पति जिसमें वनस्पति जीव नहीं हैं वनस्पतिकाय हैं। सजीव वृक्ष आदि वनम्पतिकायिक हैं। विग्रहगतिवर्ती यह जीव वनस्पतिजीत्र कहलाता है जिसके वनस्पतिनामकर्मका उदय है तथा जो आगे वनस्पतिको शरीर रूपग्मे ग्रहण करेगा। प्रत्येक कायके चार भेदों में से प्रथम दो भेद स्थापर नहीं कहलाते क्योंकि वे अजीब हैं तथा इनके स्थावर नामकर्मका उलय भी नहीं है। एकेन्द्रियके चार प्राण हाते हैं-स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वसोच्छ्वास । जस जीवोंके भेद द्वीन्द्रियादयस्वसाः ॥१४॥ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस होते हैं। शंख,कोंडी, सीप, जोक, आदि दोइन्द्रिय जीव है। चींटी, विष्छू, पटार, ज, खटमल आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। मक्खी, पतंग, भौंरा, मधुमक्खी, मकड़ी आदि चतुरिन्द्रिय जीव है। पञ्चेन्द्रिय जीव अण्डायिक पोतायिक आदिके भेदसे अनेक प्रकार के हैं । यथा-अण्डायिक-अण्डेसे उत्पन्न होनेवाले सप, बमनी, पक्षी आदि । पोतायिक-जो प्राणी गर्भ में जरायु आदि आवरणसे रहित होकर रहते हैं उन्हें पोतायिक कहते हैं। जैसे कुत्ता, बिल्ली, सिंह, व्याघ्र,
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy