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________________ तस्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२।१४-१३ पुनः वही स्थिति, कपायध्यायवसाय स्थान और अनुभागाध्यवसायस्थानके होने पर असंख्यात भागवृद्धिसहित द्वितीय योगस्थान होता है। इसप्रकार श्रेणीके असंख्यात भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं। योगस्थानों में अनन्तमा वृद्धि और अनन्तगुणद्धि रहित केवल चार प्रकारकी हो वृद्धि होती है । पुनः उसी स्थिति और उसी कपाग्राध्यवसाय स्थानको प्राप्त करने वाले जीवक द्वितीय अनुभागाभ्यवसायस्थान होता है। इसके योगस्थान पूर्ववत्, ही होते हैं । इसप्रकार असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यबसायस्थान होते हैं। पुनः उसी स्थितिका बन्ध करने वाले जीवके द्वितीय कपायाध्यवसाय स्थान हाता है । इसके अनुभागाभ्यबसायस्थान और योगस्थान पूर्ववत् ही होते हैं । इसप्रकार असंन्यात लोक प्रमाण कपायाव्यवसाय स्थान होते है । इस तरह जवन्य आयुमें एक २ नमयकी वृद्धिक्रमस तीस कोटाकोटि सागरकी उत्कृष्ट स्थति को पूर्ण करें। उक्त क्रमसे सर्यकांकी मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंकी अघन्य स्थितिम लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त कपाय, अनुभाग और योगस्थानों को पूर्ण करने पर एक भावपरिवर्तन होता है। संसारो जीवक भेद समनस्काइमनस्काः ॥ ११ ॥ संसारी जीत्र समनस्क और अमनस्कक भेदने दो प्रकार के होते हैं । मनके दो भेद है द्रव्यमन आर भावमन । द्रव्य मन पुलावपाकी कम के उद्यम हाता है। वीर्यान्तराय नश्रा नोइन्द्रियावर गकमक क्षयापशमसे होने वाली आत्माकी विशुद्धि को भावमन कहते हैं । सूत्रमें समनश्क को गुणदोपविचारमदहोने के कारणचामिनहानिये पहिलका महाराज संसारिणस्वमस्थायराः ।। १२ ।। संसारी जीवकि त्रम आर स्थावरके भेदन भी दो भेद होते हैं। प्रस नाम कर्मके उदयसे ग्रस और स्थावर नामकर्मक उदयास स्थावर हात है । त्रस का मतलब यह नहीं है कि जो चले फिरे वे उस हैं श्रीर जो स्थिर रह व स्थावर हैं। क्योंकि इस लक्षण के अनुसार यात्रु आदि त्रस हा जायगे और गर्भस्थ जीव स्थावर हो जायगे। प्रश्न-इम सूत्र में संसारी शब्दका ग्रहण नहीं करना चाहिये क्योंकि संसारिणी मुक्ताश्च' इस सूत्र में संसारी शब्द आ चुका है। उत्तर-पूर्व सूत्र में कह हुये समनरक और अमनस्क भेद संसारी जीवक ही होते है इस बातको वतलाने के लिये इस सूत्र में संसारी शब्दका ग्रहण किया गया है । इस शब्दका ग्रहण न करनेस संसारी जीत्र समनस्क होते हैं और मुक्त जीव अमनस्क होते हैं ऐसा विपरीत अर्थ भी हो सकता था। तथा संसारी जीच बस और मुक्त जीव स्थावर होते हैं ऐसा अर्थ भी किया जा सकता था। अत: इस सूत्र में संसारी शब्दका होना अत्यन्त आवश्यक है। स शब्दको अल्प स्वरवाला और ज्ञान और उसमें दर्शन रूप सभी उपयोगोंकी संभावना होने के कारण सूत्र में पहिले कहा है । स्थार के भेदपृथिव्यातेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥ १३ ॥ पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और उनस्पतिकायिक ये पांच प्रकार के स्वार हैं।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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