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द्वितीय अध्याय
३६७ परमाणुओं को बीच में गृहीत परमाणुओं को तथा मिश्र परमाणुओं को ग्रहण किया इसके अनन्तर यही जीव उन्हीं स्निग्ध आदि गुणोंसे युक्त उन्ही तीन आदि भावोंसे उन्हीं पुल परमाणुओं को औदारिक श्रादि शरीर और पर्याप्ति रूपसे ग्रहण करता है । इसी क्रमसे जब समस्त पुद्गलपरमाणुओं का नोकर्म रूपसे ग्रहण हो जाता है तब एक नोकर्मद्रव्य परिवर्तन होता है।
एक जीवने एक समयमें अष्ट कर्म रूपसे अमुक पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण किया और एक समय अधिक अवधि प्रमाण कालके बाद उन्हें निर्जीण किया। नोकर्मद्रव्यमें बताए गए क्रमके अनुसार फिर वही, जीव उन्हीं परमाणुओं को उन्हीं कम रूपसे ग्रहण करें । इस प्रकार समस्त परमाणुओं को जब क्रमशः फर्म रूपरंग प्रण कर चुकता है तब एक कर्मद्रव्य परिवतन होता है। इन नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन और कर्मद्रव्यररिबर्तनके समूह का नाम द्रव्य परिवर्तन है।
___ सर्वजघन्य अवगाहनावाला अपर्याप्त सूक्ष्मनिगोद जीव लोकके आठ मध्य प्रदेशों को अपने शरीरके मध्यमै करके उत्पन्न हुश्रा और मरा । पुनः उसी अवगाहनासे अहलके असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाशके जितने प्रदेश हैं उतनी बार वहीं उम्पन्न हो । फिर अपनी अवगाहना में एक प्रदेश क्षेत्र को बढ़ावे । और दूसा क्रमसे जब सर्वलोक उस जीवका जन्म, क्षेत्र बन जाय तब एक क्षेत्रपरिवर्तन होता है मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
कोई जीव उत्सर्पिणी कालके प्रथम समयमें उम्पन्न हो, पुनः द्वितीय उत्सर्पिणी कालके द्वितीय समयमें उत्पन्न हो । इसी क्रमसे तृतीय चतुर्ध आदि उत्सर्पिणी कालके तृतीय चतुर्थ आदि समयों में उत्पन्न होकर उत्सर्पिणी कालके सर्व समयों में जन्म ले और इसी क्रमसे मरण भी करे । अवसर्पिणी कालके समयों में भी उत्मर्षिणी काल की तरह ही वही जीव जन्म और मरण को प्राप्त हो तब एक काल परिवर्तन होता।
भवपरिवर्तन चतुर्गतियोमें परिभ्रमणको भव परिवर्तन कहते हैं। नरक गतिमें जघन्य श्रायु दश हजार वर्ष है । कोई जीव प्रथम नरममें जघन्य आयु पाला उत्पन्न हो, दश हजार वर्षके जितने समय हैं उतनी बार प्रथम नरक में जघन्य आयुका वन्ध कर उत्पात्र हो। फिर वहीं जीव एक समय अधिक आयुको बढ़ाते हुये कमसे तेतीस सागर आयुको नरकम पूर्ण करे तन्न एक नरकगतिपरिवर्तन होता है। तिर्यञ्चति में कोई जीव अन्तर्मुहर्त प्रमाण जघन्य आयुबाला उत्पन्न हो पुनः द्वितीय वार उसी आयुसे उत्पन्न हो। इस प्रकार एक समय अधिक आयु का बन्ध करते हुये तीन पल्य की आयु को समाप्त करनेपर एक तिर्यगति परिवर्तन होता है। मनुष्यगति परिवर्तन तिर्यग्गति परिवर्तनके समान ही समझ लना चाहिये । देवगति परिवर्तन नरकति परिवर्तन की तरह ही है। किन्तु देवगति में आयुमें एक समयाधिक वृद्धि इकतीस सागर तक ही करनी चाहिए । कारण मिथ्याष्टि अन्तिम प्रबेयक तक ही उत्पन्न होता है। इस प्रकार चारों गतिके परिवर्तन है।
पञ्चेन्द्रिय, संझी पर्याप्रक मिथ्यादृष्टी जीवके जो कि ज्ञानावरण कर्म की सर्वजघन्य अन्त: कोटाकोटि स्थिति बन्ध करता है कपायाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । और इनमें संख्यात भाग वृद्धि, असंन्यात भाग वृद्धि, अनन्त भाग वृद्धि, संख्यात गुण बृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि, अनन्त गुण वृद्धि इस प्रकार की वृद्धि भी हाती रहती है। अन्तःकोटाकोटि की स्थिति में सर्वजघन्य कपायाध्यवसायस्थाननिमित्तक अनुभाग अध्यवसायके स्थान असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं। सवजघन्य स्थिति, सर्वजघन्य कषायाध्य वसाय स्थान और सर्चजवन्य अनुभागाध्यवसायके होनेपर सर्वजघन्य योगस्थान होता है।