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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तत्त्वार्थ वृत्ति हिन्दी-सार
[२२८-१० प्रकार जीवके द्वारा शरीर रूपसे गृहीत पुद्गल भी उपचारसे जीव कहे जाते हैं । इसी प्रकार जिस जीवमें आत्मविवेक नहीं है वह उपचरित असद्भुत व्यवहारनयकी अपेक्षा अचेतन कहा जाता है । इसी प्रकार जीवके मूर्तत्व और पुल के अमूतत्व भी औपचारिक है।
प्रश्न-मूतं कर्मों के साथ जब जीव एकमेक हो जाता है तब उन दोनों में परस्पर क्या विशेषना रहती है ?
उत्तर-यद्यपि बन्धकी अपेक्षा दोनों एक हो जाते हैं फिर भी लक्षणभेदसे दोनों में भिन्नता भी रहती है—जीव चेतनरूप है और पुद्गल अचेतन । इसी तरह अमूर्तत्व भी जीव में ऐकान्तिक नहीं है।
जीवका लक्षण
उपयोगो लक्षणम् ।। ८ ।। जीवका लक्षण उपयोग है। बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तोंके कारण आत्माके चैतन्य स्वरूपका जो ज्ञान और दर्शन रूपसे परिणमन होता है उसे उपयोग कहते हैं।
सद्यपि उपयोग जीवका लक्षण होनेसे आत्माका स्वरूप ही है फिर भी जीव और उपयोगमें लक्ष्य-लक्षणकी अपेक्षा भेद है । जीव लय हैं और उपयोग लक्षण ।
उपयोग के भेद
स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ।। ६॥ उपयोगके मुख्य दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोगके मति, श्रुत,अवधि, मनःपर्यय, केवल, कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये आठ भेद हैं । दर्शनोपयोगके चक्षु, अचक्षु, अवधि और केबलदर्शनके भेदसे चार भेद है। ज्ञान साकार और दर्शन निराकार हाता है । वस्तुके विशेष ज्ञानको साकार कहते हैं। और सत्तावलोकन मात्रका नाम निराकार है।
छद्मस्थोंके पहिले दर्शन और बादमें ज्ञान होता है। किन्तु अन्त, सिद्ध और सयोगकेवलियों के ज्ञान और दर्शन एक साथ ही होता है।
प्रश्न-ज्ञानसं पहिले दर्शनका ग्रहण करना चाहिये क्योकि दर्शन पहिले होता है ?
उत्तर-दर्शनसे पहिले ज्ञानका ग्रहण ही ठीक है क्योंकि ज्ञानमें थोड़े स्वर हैं और पूज्य भी है।
जीव के भेद
संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ संसारी और मुक्तके भदसे जीय दो प्रकारके हैं।
यद्यपि संसारी जीवों की अपेक्षा मुक्त पूज्य हैं फिर भी मुक्त होनेके पहिले जीव संसारी होता है अतः संसारो जीवों का ग्रहण पहिले किया है। ___ । पञ्च परिवर्तन को संसार कहते हैं ।। द्रव्य, क्षेत्र, भव, और भाव ये पांच परिवर्तन हैं। द्रव्यपरिवर्तनके दो भेद है-नोकर्म द्रव्यपरिवर्तन और द्रव्य कर्मपरिवर्तन ।
किसी जीवने एक समयमें औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर तथा षट् पर्याप्तियोंके योग्य स्निग्ध,रस, वर्ण गन्ध आदि गुणोंसे युक्त पुल परमाणुओं को तीत्र, मन्द या मध्यम भावाँसे ग्रहण किया और दूसरे समग्रमें उन्हें छोड़ा । फिर अनन्त बार अगृहीत