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बनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार
की प्रतिष्ठा बाहामं कदाचिरीडी भी प्राचार्य प्रणिधानकार एका हाहामवर बैठना होगा। है' एक प्राणीकी धमकी शीतल छायामं मनानभाव मन्नाषक। ग्राम रनका अवनर है। आमममत्व वीतरागत्व या आसाके विकासमेही कोई महानही मना हैन कि जगतम त्रिपमता फैलानेवाले हिम परिअहके संग्रहमे । आदर्श त्याग है न कि संग्रह । इस प्रकार जाम, वर्ण, रंग. देश, P. पग्पिहसंग्रह आदि विषमता और गघर्षक कारणों में परे होकर प्राणिमात्रको ममत्य, अहिंसा और जीनगरलावा पावन मन्दा इन श्रमणमन्तान उस समय दिया जच यज्ञ आदि क्रियाकक बविशेषत्री जीविकाके माधन बन हाए। कुछ गाय, सोना और स्त्रियों की दक्षिणास स्वर्ग के टिकिः प्राप्तान धर्म के नाम पर गामध अजामेध कनिन नरमेधतक का म्ला बाजार था, जानिनन उक्चस्व नीचवका विष समाजमरीका दग्ध कर रहा थर, अनंक प्रकारसे सनाको हभियानक पड्यन्त्र चाल थे। उस नबंर गर्म पानबममत्व और प्राणिमधीका उदाग्नम सन्देश इन युगधर्मी मत्ताने नास्तिकताका मिश्या लाछन महल हए भी दिया और धान्न जनगावो मन्त्री समाजरचनाका मलमन्त्र बनाया।
पर, यह अनुभवसिद्ध बात है कि अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्टा मनासद्धि और वचनशुद्धिके विना नहीं हो गकती। हम भले ही गरीग्मे दूसरं प्राणियोंकी हिमा न करें पर यदि बचन ध्यत्रहार और चित्तगतविचार दिषभ और विसंवादी है तो कायिक ओहमा पल ही नहीं मानी। अपने मनके चिनार अर्थात मतको पुष्ट करने के लिए ऊन नीच शब्द बोले जायेंगे और फलत: हाथापाईका अवसर आए विना न रहेगा। भारतीय शास्त्राका इतिहास ऐसे अनके हिसा कराके किनार्गअन गोग भग का है। उमः यह आवश्यक था कि हिमाको सर्वागीण प्रतिष्ठाक लिए विश्वका यथार्थ तत्त्वज्ञान ही और विना अधिमूलक वचनशद्धिकी जीवमध्यवहारम प्रनिष्ठा हा ग्रह मम्भव ही नही है कि कही तक विषय में परस्पर विरोधी मतवाद चल रहें, अपने पक्ष के समर्थन लिए गत अनिम्बार्य हात रहें. पक्षप्रतिपक्षोंका संगठन हो, शास्त्रार्थ में हारने बालेकी नलकी जन्ननी भाडाहीम जीवित नालन जैसी हिसक हो भी लगे, फिर भी परस्पर हिसा बनी रहे !
भगवान महावीर एक परम अहिसक सना । नन दखा कि आजका माग राजकारण धर्म और मजादियोंके हायम है। जबतक इन मतगावनिक आधाभगमन्वय नगः तनमक हिसाकी जद नहीं कट सकती। उनने विश्व के लत्वाका साक्षाकार किया और बनाया कि विश्वका प्रत्येक चेतन और जड़ तस्त्र अनन्त बोका भण्डार है। उसके बिगट् स्वरूपको गाधारणा मानव परिपूर्ण रूपमें नहीं जान सकता। उसका सद ज्ञान वस्नुके एक एक अंगको जानकर अपनी गुणं। का दुरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तुमे नहीं है। विवाद तो द खनवालांकी दृष्टिमं है। काय ये बस्तके विराट् अनन्त-धर्मा:मक या अनेकात्मक स्वरूपकी झांकी पा सकते । उननं इम अनंकानात्मक तस्वज्ञानकी ओर मतवादियोंका ध्यान स्वीचा और बताया कि देखो, प्रत्यक बस्तु अनन्न गण पर्याय और
मौका अखण्ड पिण्ड है। या अपनी अनाधनन्ज मन्नादरूप स्थितिकी म नित्य है । कभी भी ऐना समय नहीं आ सकता जब शिस्त्रके रंगमनसे एक कणका भी समल विवाग हो जाय । गायी प्रतिक्षण उसकी पर्याय बदल रही हैं, उनके गुण-धोम भी मदन या विक परिवर्तन हो रहा है, अनः बह अनित्य भी है। इसी सरह अनन्त गुण, शकिा, पर्याय और धर्म प्रयोग वस्तकी निजी सम्पत्ति हैं। इनमसे हमारा स्वल्प मानलब एक एक अंगको विषय करके अः गतवाद गष्टि करता है। आत्मा को नित्य सिद्ध करने वालोंका पक्ष अपनी सारी भक्ति आत्माको अनिन्य सिद्ध करने वालांक: उन्नाइ पछाड़में लगा रहा है तो 'अनित्यत्रादियों का मु. नित्यत्रादियोंको गला बुरा कह रही है।
महावीरका इन मतवादियोंकी बुद्धि और प्रवृत्ति पर गरम आता था। ये बी गह आत्मनित्यत्व और अनित्यत्व, परलोक और निर्वाण आदिको अन्याकन (अकथनीय) कहकर बौद्धिक नमकी