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मॉमसंकृति-प्रस्वाबार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
मष्टि नहीं करना चाहते थे। उनने इन सभी तत्वांका पथार्थ स्वरूप बताकर शिष्योंको प्रकाशम लाकर उन्हें मानस समताकी समभूमिपर ला दिया। उनन बनाया कि वस्तुको गम जिस दृष्टिकोणसे देख रहे हो वस्तु उतनी ही नहीं है.उसमें ऐसे अनन्त दृष्टिकोण से देसे ज्ञानको क्षमता है, उसका विराट् स्वरूप अनन्त धर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालम होता है उसका ईमानदारी से विचार करो, वह भी वस्तुमें विद्यमान है। चितसे पक्षपानक। दुर्गभगन्धि निकालो और दूसरेके दृष्टिकोणको भी उतनी ही प्रामाणिकतासे वस्तुमें खोजो, वह वहीं लहरा रहा है। हाँ, वस्तूकी सीमा और मर्यादाका उल्लंघन नहीं होना चाहिए। तुम चाहो कि जड़ चेतनत्व मिल जाय या चेतनमे जडत्व, तो नहीं मिल सकता
त्येक पदार्थके अपने निजी धर्म निपिचन। में प्रत्येक वस्तको अनन्नधर्मात्मक कह रहा है, सर्वधर्मात्मक नहीं। अनन्त धोम नेतनके सम्भव अनन्त धर्म चेतनमें मिलेंगे तथा अचेतनगत धर्म अचंतनम । चेतनके गण-धर्म अचेतगम नहीं पाये जा सकते और न अनंतन के चेतन में। हो, कुछ ऐने मामान्य धर्म भी है जो'चंतन औ: बरेनन दोनोंम साधारण रूपसे पाए जाते हैं। तात्पर्य यह कि वस्तुम बहुत गुजाइश है। वह इतनी दिगद है, जो तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद्र-दृष्टिका आरह करके दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तुके स्वरूपकी नासमक्षीका परिणाम है। हरिभद्रमृरिने बहुत सुन्दर लिखा है कि
"आपही बता निनीष सि मुक्तिं तत्र यत्र मतिरस्प निषिष्टा ।
पक्षपातरहितस्य तु युक्लियत्र तत्र मतिरैति निवेशम् ।।'' (लोकतत्त्वनिर्णय)
अर्थात्-आग्रही व्यक्ति अपने मतपोषण के लिए युक्तियाँ देता है, यक्तियोंको अपने मतकी ओर ले जाता है, पर पक्षपात हित मध्यस्थ व्यक्ति युक्तिसिद्ध वस्तुम्वरूपको स्वीकार करनमें ही अपनी मति की सफलता मानता है।
अनेकान्त दर्शन भो यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपकी और अपने मतको लगाओ न कि अपने निश्चित मतकी ओर वस्तु, और युक्तिको खींचातानी कर उन्हें बिगाड़नेका दुष्प्रायास करो, और न कल्पनाको उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तु की सीमाको ही लांघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमताके लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है। इसके द्वारा इस नरतनपारी को ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानीमे है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है, और वह किस दुरभिमानसे हिसक मतवादका सजन करकं मानवसमाजका अहित कर रहा है। इस मानस अहिंसात्मक अनंकाम्न दर्शनसे विचारोंम या दृष्टिकोणोंम कामचलाऊ समन्वय या ढीलाढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वन्तुस्वरूपके आधारमे यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक संवाद दृष्टि प्राप्त होती है ।
डॉ० सर राधाकृष्णन इण्डियन फिलामफी (जिल्द १ पृ० १०५-६ ) में स्थावादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि-'इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है. स्वामादसे हम पूर्ण सत्यको नही जान सकते। दूसरे शब्दोंम स्याहाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देना है और इन्ही अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है। परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्थमन्योंको मिलाकर एक नाथ रख देनमे बह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता।" आदि ।
क्या सर राधाकृष्णन यह नामकी कृपा करेंगे कि स्याहादने निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण म:य मागनंको प्रेरणा कैप की है? हां, वह वेदान्सकी नन्द चेतन और अचेतनके काल्पनिक अभेदकी दिमानी दाडम अवश्य शामिल नहीं हुआ, और न वह किसी एसे सिद्धान्तका समन्वय करनेकी सलाह देना है जिममं वस्तुस्थितिकी उपेक्षा की गई हो। सर राधाकृष्णन को पूर्णसत्य रूपसे वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इष्ट है जिमम चनन अचेतन मत अमर्त सभी काल्पनिक रीतिमे समा जाते हैं। वे स्याद्वादकी समन्वयदृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक बस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक