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________________ ११ अनेकान्तदर्शन का सांस्कृतिक आधार हं तब उस बास्तविक नतीजेपर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं? हाँ, स्याद्वाद उस प्रामाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता। वैसे, संग्रहह्नयकी एक घरम अभंदकी कल्पना जनदर्शनकारोंने भी की है और उस परम संग्रहनयकी अभेद दृष्टिसे बताया है कि-"सर्वमेक मदविशेषात् अर्थात् जगत् एक सयस यतन और म्यान में कोई भेद नहीं है । पर यह एक कल्पना है, क्योंकि ऐसा एक सत् नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमै अनुगत रहता हो। अत: यति सर राधाकृष्णनको चरम अभेदकी कल्पना ही देखनी हो तो वे परमसंग्रहनयके दष्टिकोणमें देख सकते हैं, पर वह केवल कल्पना ही होगी, वस्तुस्थिति नहीं। पूर्णसत्य तो वस्तुका अनेकान्तात्मक रूपमें दर्शन ही है न कि काल्पनिक अभेदका दर्शन । इसी तरह प्रो.बलदेव उपाध्याय इस स्मातादसे प्रभावित होकर भी सर राधाकृष्णनका अनुसरण कर, स्याद्वादको मूलभूततस्व (एक ब्रह्म?) के स्वरूपके समझने में नितान्त असमर्थ बतानेका साहस करते हैं। इनमें सो यहाँ तक लिख दिया है कि-"इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थके बीचोंबीच तस्वविचारको कतिपय क्षणकं लिए बिसम्म तथा बिराम देनेवाले विधामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता।" (भारतीय दर्शन १.० १७३) । आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शनको उस काल्पनिक अभेदतक पहुंचना चाहिए। पर स्याद्वाद जब वस्तुविचार कर रहा है तब वह परमार्थसत् वस्तुकी सीमाको कैसे लाँघ सकता है ? वाकवाद न केवल युक्तिविरुद्ध ही है किन्तु आजके विज्ञानसे उसके एकीकरणका कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता । विज्ञानने एटमका भी विश्लेषण किया है और प्रत्येककी अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है। अतः यदि स्थाढाद वस्तुकी अनेकान्तात्मक सीमा पर पहुंचाकर बुद्धिको विराम देता है तो यह उसका भूषण ही है। दिमागी अभेदसे वास्तविक स्थितिकी उपेक्षा करना मनोरज्जनसे अधिक महत्त्वकी बात नहीं हो सकती। इसी तरह श्रीयुत हनुमन्तराष एम. ए. ने अपने "Jain Instrumental Theory of knowledge"नामक लेख में लिखा है कि-"स्याद्वाद सरल समझौतेका मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता।" आदि। ये सब एक ही प्रकारके विचार है जो स्यावादके स्वरूपको न सममनके या वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करने के परिणाम है। मै पहिले लिख चुका हूँ कि महायोग्ने देखा कि-वस्तु तो अपने स्थानपर अपने विराट रूपमें प्रतिष्ठित है, उसमें अनन्त धर्म, जो हमें परस्पर विरोधी मालूम होते हैं, अनिरुद्ध भावमे विद्यमान है. पर हमारी दृष्टिमें विरोध होनेगे हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समय पा रहे हैं। जैन दर्शन वास्तव-बहुल्बबादी है। वह दो पृथक् सत्ताक यस्तुओंको व्यवहारके लिए कल्पनासे अभिन्न कह भी, पर वस्तुकी निजी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहता। जैन दर्शन एक व्यक्तिका अपने गुण-पर्यायोंमे वास्तविक अभेद तो मानता है, पर दो व्यक्तियोम अवास्तविक अभेदको नहीं मानता। इस दर्शनकी यही विशेषता है, जो यह परमार्थ सत् वस्तुकी परिधिको न लांघकर उसकी सीमा ही विवार करता है और मनुष्योंको कल्पनाकी उड़ानसे विरत कर वस्तुको ओर देखनेको बाध्य करता है। जिस चरम अभेद तक न पहुंचने के कारण अनेकान्त दर्शनको सर राधाकृष्णन जैसे विचारक अर्घसत्योंका समुदाय कहते हैं, उस चरम अभेदको भी अनेकान्त दर्शन एक व्यक्तिका एक धर्म मानता है। वह उन अभेदकल्पकोंको कहता है कि वस्तु इसमे भी बड़ी है अभेद तो उसका एक धर्म है। दृष्टिको और उदार तथा विशाल करके यस्तुके पूर्ण रूपको देखो, उममें अभेद एक कोनम पड़ा होगा और अभेदके अनन्तों भाई-बन्धु उसमं तादात्म्न हो रहे होंगे। अत: इन ज्ञानलवधारियोंको उदारष्टि देनेवाले तथा वस्तुकी झांकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शन ने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है, और यह सब हुआ है मानसममलामुलक तत्त्वज्ञानकी खोजसे। जब इस प्रकार वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मात्मिका है तब सहज
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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