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________________ ६१६५] छठवां अध्याय द्वारा प्रात्माकं धर्मको वृद्धि करना और चार प्रकारके संघके दोषोंको प्रगट नहीं करना उपगृहन है । क्रोध, मान, माया और लोभादिक धमके विनाशक कारण रहने पर भी धर्मस मार्गदर्षया नहीं मोनाविकपमहानिमशासनहसअनुराग रखना यात्सल्य है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके द्वारा यात्माका प्रकाशन और जिनशासनकी उन्नति करना प्रभावना है। सम्यग्दर्शनके इन आठ अंगोंका का सद्भाव तथा तीन मूढ़ता, छह अनायतन और आठ मदोंका अभाव, चमड़े के पात्र में रक्खे हुये जलको नहीं पीना और फन्दमूल, कलिङ्ग, सूरण, लशुन आदि अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण न करना आदिको दर्शनविशुद्धि कहते हैं। रत्रत्रय और रबत्रयके धारकोंका महान् आदर और कषायका अभाव विनयसम्पन्नता है। पाँच व्रत और सात शीलों में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलबतेवनतिचार है। जीवाहिपदार्थों के स्वरूपको निरूपण करनेवाले ज्ञान में निरन्तर उद्यम करना भीक्ष्ण-ज्ञानोपयोग है। संसारके दुखोंसे भयभीत रहना संवेग है। अपनी शक्तिके अनुसार आहार, भय और ज्ञानका पात्रके लिये दान देना शक्तितस्त्याग है । अपनी शक्तिपूर्वक जैन शासनके अनुसार कायक्लेश करना शक्तितस्तप है। जैसे भाण्डागारमें आग लग जाने पर किसी भी उपायसे उसका शमन किया जाता है उसी प्रकार व्रत और शीलसाहित यतिजनोंके ऊपर किसी निमिससे कोई विघ्न उपस्थित होने पर उस विघ्नको दूर करना साधुसमाधि है। निदप विधिसे गुणवान् पुरुषों के दोषोंको दूर करना बयावृत्य है । अर्हन्तका अभिषेक, पूजन, गुणस्तवन, नामको जाप आदि अईद्भक्ति है। आचार्योको नवीन उपकरणों का दान, उनके सम्मुखगमन, आदर, पादपूजन, सम्मान और मनःशुद्धियुक्त अनुरागका नाम आचार्यभक्ति है। इसी प्रकार उपाध्यायोंकी भक्ति करना बहुश्रुतभक्ति है। रत्नत्रय आदिके प्रतिपाइक आगममें मनःशुद्धि युक्त अनुराग का होना प्रवचनभक्ति है। सामायिक स्तुति,चौबीस तीर्थकरकी स्तुति-वन्दना,पर्क तीर्थंकर स्तुति,प्रतिक्रमण-कृतदोष निराकरण, प्रत्याख्यान नियतकाल और आगामी दोका परिहार और कायोत्सर्ग-शरीरसे ममत्वका छोड़नाइन छह आवश्यकों में यथाकाल प्रवृसि करना आवश्यकापरिहारिण है। ज्ञान, दान, जिनपूजन और तपके द्वारा जिन धर्मका प्रकाश करना मार्गप्रभावना है। गाय और बछड़े के समान प्रवचन और साधी जनम स्नेह रखना प्रवचनक्सलत्व है। ये सालह भावनाएँ तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका कारण होती हैं। भीच गोत्रके आसवपरामनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचंगोत्रस्य ।। २५ ॥ दूसरोंकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करना, विमान गुणोंका क्लिोप करना और अविद्यमान गुणोंको प्रकट करना ये नीच गोत्रके आरव हैं। ___ 'च' शब्दरसे जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, श्रुतमद, ज्ञानमद, एश्चमद और तपमद-ये आठमद, दूसरोका अपमान, दुग्नरोंकी है सो करना. दूसरोंका परिवादन, गुरुओंका तिरस्कार, गुरुओंसे उद्भट्टन-टकराना, गुरुओं के दोषोंको प्रगट करना, गुम्ओं का विभेदन, गुरुओंको स्थान न देना, गुरुओं का अपमान, गुरुओंकी भन्ना, गुरुत्रोसे असभ्य वचन करना । गुरुओंकी स्तुति न करना और गुरुओंको देखकर खड़े नहीं होना आदि भी नीच गोत्रके आस्रव हैं।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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