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________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [६।२३-२४ चूर्णादिके प्रयोग से दूसरोंकोपामहिना, आचामायबोलेगोकोसवाल उत्पन्न करना, देव, गुरु आदिकी पूजाके बहानेसे गन्ध, धूप, पुष्प आदि लाना, दूसरोंकी बिडम्बना करना, उपहास करना, ईटें पकाना, दावानल प्रज्वलित करना, प्रतिमा तोड़ना, जिनालयका ध्वंस करना, बागका उजाड़ना, तीत्र क्रोध, मान, माया और लोभ, पाप कर्मोंस आजीविका करना आदि अशुभ नामकमंके आस्रव है। शुभ नामकर्म के आस्रघ--- तद्विपरीतं शुभस्य ।। २३ ।। योगोंकी सरलता और अविसंवादन ये शुभ नामकर्मके आसव हैं। धर्मात्माओंक पास आदरपूर्वक जाना, संसारसे भीरुता, प्रमादका अभाव, पिशुनताका न होना, स्थिरचित्तता, सत्यसाहो, परप्रशंसा, श्रात्मनिन्दा, सत्यवचन, परद्रव्यका हरण न करना, अल्प समारंभ और परिग्रह, अपरिग्रह, कभी कभी उज्ज्वल वेप धारण करना, रूपका मद न होना, मृदभापण,शुभयचन, सभ्यभाषण, सहज सौभाग्य,स्वभावसं वशीकरण, दूसरोंको कुतूहल उत्पन्न न करना, विना किसी बहाने के पुष्प, धूप, गन्ध आदि लाना, दूसरोंकी बिडम्बना न करना, उपहास न करना, इष्टिकापाक और दावानल न करनेका व्रत, प्रतिमा निर्माण, जिनालयका निर्माण, बागका न उजाड़ना, क्रोध, मान, माया और लोभकी मन्दता पापकौसे आजीविका न करना आदि शुभ नामकर्म के आस्रव है। नीर्थकर नाम कर्मके आस्रव - दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमईदाचार्यबहुश्रुतप्रकचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ दर्शनविशुद्धि. विनयमम्पन्नता, शील और व्रतीम अतीचार न लगाना, अभीषण ज्ञानोपयोग और संवेग, यथाशक्ति त्याग और तफ, साधुसमाधि, वैयावृत्य, अईक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाण, मार्गप्रभावना, और प्रबचनवत्सलता ये तीर्थकर प्रकृतिके आस्रव हैं। __ दर्शनविशुद्धि पश्चीम दोष रहित निर्मल सम्यग्दर्शनका नाम दर्शनविशुद्धि है। दर्शनविशुद्धिको पृथक् इसलिये कहा है कि जिनक्तिरूप या तत्त्वार्थश्रद्धारूप सम्यग्दर्शन अकेला भी तीर्थकर प्रकृतिका कारण होता है। यशस्तिलक में कहा भी है कि-"केवल जिनभक्ति भी दुर्गतिके निवारणमें, पुण्य के उपार्जनमें और मोक्ष लक्ष्मीके देने में समर्थ है।" अन्य भावनाएं सम्यग्दशनके विना तीथकर प्रकृतिका कारण नहीं हो सकती अतः दर्शनविशुद्धिकी प्रधानता बनलाने के लिये इसका पृथक् निर्देश किया है। दर्शनविशुद्धिका अर्थ-इह लाकभय,परलोकमय,अत्राणमय,अगुनिमय,मरणमय, वेदनाभय और आकस्मिकभय इन सात भयोंसे रहित होकर जैनधर्मका श्रद्धान करना निःशक्ति है । इस लोक और परलोकके भोगोंकी श्राफांक्षा नहीं करना निःकाइक्षित है। शरीरादिक पवित्र है, इस प्रकारकी मिथ्यायुद्धिका अभाव निर्वािचकित्सता है। अर्हन्तको छोड़कर अन्य कुदेवों के द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण नहीं करना अमूदष्टि है। उत्तम क्षमा आदिके
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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