SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 544
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६।२५ मारविर्शक :- आचार्य श्री सुशिष्ठिकाणच्याची महाराज ४४३ शील और त्रतरहित भोगभूमिज जीव दान स्वर्ग पर्यन्त उत्पन्न होते हैं अतः उक्त जीवोंकी अपेक्षा निःशीलवतित्व देवायुका अानव है। कोई अल्पारंभी और अल्प परिग्रही व्यक्ति भी अन्य पापांके कारण नरक आदिको प्राप्त करते हैं अतः एसे जीवोंकी अपेक्षा अल्शरंभ-परिग्रह भी नरक आयुका आस्रव होता है। देवायुके आस्रवसरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जरापालतपांसि दैवस्य ॥ २० ॥ सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायुके आस्रव हैं। सरागसंयमका दो प्रकारसे अर्थ हो सकता है-राग सहित व्यक्तिका संयम अथवा रागसहित संयम । संसारके कारणों का विनाश करने में तत्पर लेकिन अभी जिसकी सम्पूर्ण अभिलाषाएँ नष्ट नहीं हुई एसे व्यक्ति को सराग कहते हैं और सरागीका जो संयम है वह सरागसंयम है। थथवा जो संयम रागसहित हो वह सरागसंयम है, अर्थात् महाव्रतको सरागसंयम कहते हैं। कुछ संयम और कुछ असंयम अर्धात् श्रावक व्रतोंको संयमासंयम कहते हैं । विना संक्लेशके समतापूर्वक कर्मों के फलको सह लेना अकामनिर्जरा है । जैसे बुभुक्षा, तृष्णा, ब्रह्मचर्य, भूशयन, मलधारण, परिताप आदिके कष्टोंको विना संक्लेशक भी सहन करने बालि जेलमें बन्द प्राणीके जो अल्प निर्जरा होती है बह अकामनिर्जग है। मिथ्यादष्टि तापस, संन्यासी, पाशुपत, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी, परमहंस आदिका जो कायक्लेश आदि तप है उसको थालतप कहते हैं । सरागसंयम आदि देवायुके आस्रव हैं। सम्यक्त्तश्च ।। २१ ॥ सम्यग्दर्शन भी देवायुका आस्रव है । इस सूत्रको पूर्व सूत्रसे पृथक् करनेका प्रयोजन वह है कि सम्यग्दर्शन वैमानिक दवोंकी आयुका ही आस्रव है । सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति के पहिल बद्धायुहक जीवोंको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि जीव भवनवासी आदि तीन प्रकारक देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। अशुभनाम कर्म के आसवयोगवक्रता विसंवादनञ्चाशुभस्य नाम्नः ॥२२॥ मन, वचन और कायकी कुटिलता और विसंवादन ये अशुभ नाम कर्मके आम्रप है। मनमें कुछ सोचना, पचनसे कुछ दूसरे प्रकारका कहना और कायसे भिन्न रूपसे ही प्रांत करना योगवक्रता है। दूसरोंकी अन्यथा प्रवृत्ति कराना अथवा अयोमार्गपर चलनेवालोंको उस मार्गफी निन्दा करके बुरे मार्गपर चलनेफा कहना विसंवादन है। जैसे सम्यकचारित्र आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाले से कहना कि तुम ऐसा मत करो और ऐसा करो। योगवक्रता आत्मगत होती है और विसंवादन परगत होता है यही योगवत्रता और विसंवादनमें भेद है। 'च' शब्दसे मिण्यादर्शन, पैशून्य, अस्थिरचित्तता, झूल बांट तराजू रखना, झूठी साक्षी देना, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, परद्रव्यग्रहण असत्यभाषण, अधिक परिग्रह, सदा उज्ज्वल वेष, रूपमद, परुयभाषण, असदस्यप्रलपन, आकोश, उपयोगपूर्वक सौभाग्योत्पादन,
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy