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________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार उच्च गोत्र के अानवतद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चौतरस्य ॥२६॥ परप्रशंसा, आत्मनिन्दा, सद्गुणोभावन, अमद्गुगोच्छादन, नीचैमुसि और अनुत्सक ये उन्न गोत्रके आम्रव है। उच्च गुणवालोंकी विनय करनेको नोचैर्वृत्ति या नम्रवृत्ति कहते हैं । मान,तप आदि गुणों से उत्कृष्ट होकर भी मद न करना अनुत्सक है। 'च' शब्दसे आठ मदोंका परिहार, दूसरोंका अपमान प्रहारत और परिवाद न करना, गुरुओंका तिरस्कार न करना, गुरुओंका सन्मान अभ्युत्थान और गुणवर्णन करना, और मृदुभापण आदि भी उच्च गोत्र के प्रास्त्रव है। अन्तरायके आनव विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ।। दूसरीमदर्शकलाभ, भागचा भाग मारिधिायमान करना अन्तरायके आस्रव है। दानकी निन्दा करना, द्रव्यसंयोग, देवोंको चढ़ाई गई नवेद्यका भक्षण, परके वीर्यका अपहरण, धर्मका उच्छेद, अधर्मका श्राचरण, दूसरोंका निरोध, बन्धन, कर्णछेदन, गुह्यछेदन, नाक काटना और आँखका फोड़ना आदि भी अन्तरायके आस्रव है।। विशेष--तत्प्रदीप, निन्हर आदि ज्ञानावरण आदि कमां के जो पृथक पृथक आस्रव बतलाए हैं वे अपने अपने कर्मके स्थिति और अनुभाग वन्धके ही कारण होते हैं । उक्त आत्रब आयु कमको छोड़कर ( क्योंकि आयु कर्मका बन्ध सदा नहीं होता है। अन्य सर काँके प्रकृति और प्रदेश बन्धके कारण समान रूपसे होते हैं। छठवाँ अध्याय समाप्त ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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