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सातवाँ अध्याय
मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
व्रतका लक्षण
हिंसाऽनृतस्तेयान्त्रह्मपरिग्रहेभ्यो बिरतितम् ॥ १ ॥
हिंसा, मूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापोंसे अभिप्रायपूर्वक किये गये नियमको अथवा कर्तव्य और अकर्तव्य के
विरक्त होना व्रत है। संकल्पको व्रत कहते हैं ।
प्रश्न -- - "ध्रुवमपायेऽपादानम्" [ पा० सू० १२|४|२४ ] इस सूत्र के अनुसार अपाय ( किसी वस्तुसे किसी वस्तुका पृथक होना ) होने पर ध्रुव वस्तु पञ्चमी विभक्ति होती है और हिंसादिक परिणामोंके अध्रुव होनेसे यहाँ पञ्चमी विभक्ति नहीं हो सकती ?
उत्तर- वक्ता के अभिप्राय के अनुसार शब्द के अर्थका ज्ञान किया जाता है। यहाँ भी हिंसादि पार्पोसे बुद्धिके विरक्त होने रूप अपाय के होनेपर हिंसादिक में ध्रुवत्वकी विषता होनेसे पचमी विभक्ति युक्तिसंगत है। जैसे 'कश्चित् पुमान् घर्मा द्विरमति' - कोई पुरुष धर्मसे विरत होता है यहाँ कोई विपरीत बुद्धिवाला पुरुष मनसे धर्मका विचार करता है कि यह धर्म दुष्कर है, धर्मका फल श्रद्धामा गम्य है; इस प्रकार विचार कर वह पुरुष बुद्धिसे धर्मको प्राप्तकर धर्मसे निवृत्त होता है। जिस प्रकार यहाँ धर्मको अध्रुव होनेपर भी पञ्चमी विभक्ति हो गई है उसी प्रकार विवेक बुद्धिवाला पुरुष विचार करता है कि हिंसा आदि पापके कारण हैं और जो पापकर्म में प्रवृत्त होते हैं उनको इस लोक में राजा दण्ड देते हैं और परलोकमें भी उनको नरकादि गतियों में दुःख भोगने पड़ते हैं. इस प्रकार स्वबुद्धिसे हिंसादिको प्राप्तकर उनसे विरक्त होता है। अतः हिंसादिमें घुक्त्वकी विवक्षा होने से यहाँ हिंसादिकी अपादान संज्ञा होती है. और अपादान संज्ञा होनेसे पचमी विभक्ति भी हुई।
व्रतों में प्रधान होनेसे अहिंसाको पहिले कहा है । सत्य आदि व्रत अनाजकी रक्षा के लिये बारीकी तरह अहिंसा व्रत के परिपालनके लिए ही हैं। सम्पूर्ण पापकी निवृत्तिरूप केवल सामायिक ही है और छेदोपस्थापना आदिक भेदसे व्रतके पाँच भेद है ।
प्रश्न-वर्तीको आक्का कारा कहना ठीक नहीं है किन्तु व्रत संघर के कारण हैं । "स गुमिममितिधर्मानुप्रेक्षा परी पहजय चारित्रै:" [ २ ] इस सूत्र के अनुसार दशलक्षण धर्म और चारित्र व्रतका अन्तर्भाव होता है ।
उत्तर--संवर निवृत्तिरूप होता है और अहिंसा आदि व्रत प्रवृत्तिरूप हैं, अतः तो आवका कारण मानना ठीक है। दूसरी बात यह है कि गुमि समिति आदि संबर के परिकर्म हैं। जिस साधुने हतोका अनुष्ठान अच्छी तरह से कर लिया है वहीं संवरको सुखपूर्वक कर सकता है। अतः व्रतोंको पृथक कहा गया है।
प्रश्न--- रात्रिभोजनत्याग भी एक छठ व्रत है उसको यहाँ क्यों नहीं कहा ?
उत्तर--अहिंसा व्रतको पांच भावनाएँ हैं उनमें से एक भावना आलोकित पानभोजन है । अतः आलोकित पानभाजन के प्रणले रात्रिमं/जनत्यागका ग्रहण हो जाता है। तात्पर्य यह है कि रात्रिभोजनत्याग अहिंसा व्रत के अन्तर्गत ही है, पृथकू व्रत नहीं है ।