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७।२५-२७ ]
सातवों अध्याय बतलाने के लिये किया गया है। प्रतोंकी रक्षा करनेको शील कहते हैं। दिम्वत आदि सात शीलोंके द्वारा पाँच अणुव्रतोंकी रक्षा होती है यही शीलोंकी विशेषता है। अतः शीलके पृथक ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।
अहिंसागुव्रतके अतिचारबन्धक्यच्छेदातिभारारोपणानपाननिरोघाः ।। २५ ।। ___बन्ध, बध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध ये अहिंसाणुव्रतके पाँच अतिचार हैं।
इच्छित स्थानमें गमन रोकने के लिये रस्सी आदिसे बाँध दना बन्ध है । लकड़ी,
बैत, दण्ड आदिसे मारना वध है। यहाँ वधका अर्थ प्राणोंका विनाश नहीं है क्योंकि मार्गदर्शक :- असमानिधसहिसलापहिलाकर चुके हैं। नाक, कान आदि अवयवोंको छेद देना
छेद है । शक्तिसे अधिक भार लादना अतिभारारोपण है। मनुष्य, गाय, भैंस, बैल, घोड़ा आदि प्राणियोंको समय पर भोजन और पानी नहीं देना अन्नपाननिरोध है।
सत्याणुव्रतके अतिचारमिथ्योपदेशरहोऽभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥ २६ ॥
मिध्योपदेश, रहोऽभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये सत्यागुमतके पाँच अतिचार है।
अभ्युदय और निःश्रेयसको न देनेवाली क्रियाओम भोले मनुष्यों की प्रवृत्ति कराना और धनादिके निमित्तसे दूसरोंको ठगना मिश्योपदेश है। इन्द्रपद, तीर्थकरका गर्भ और जन्म कल्याणक, साम्राज्य, चक्रवर्तिपद, तपकल्याणक, महामण्डलेश्वर आदि राज्यपद, और सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त अहमिन्द्रपद, इन सब संसारके विशेष अथवा साधारण सुखोंका नाम अभ्युदय है। और केवल ज्ञानकल्याणक,निर्माण कल्याणक, अनन्तचतुष्टय और परमनिर्वाणपद ये सब निःश्रेयस है। स्त्री और पुरुष के द्वारा एकान्त में किये गये किसी कार्य विशेष को अथवा वचनोंको गुप्तरूपसे जानकर दूसरोंके सामने प्रकट कर देना रहो भ्याख्यान है। किसी पुरुपके द्वारा नहीं किये गये और नहीं कहे गये कार्यको द्वेषके कारण उसने ऐसा किया है
और ऐसा कहा है इस प्रकार दूसरोंको ठगने और पीड़ा देनेके लिये असत्य बातको लिखना कूटलेखक्रिया है। क्रिसी पुरुपने दूसरेके यहाँ सुवर्ण आदि द्रव्यको धरोहर रख दिया, द्रव्य लेनेके समय संख्या भूल जाने के कारण कम द्रव्य मांगने पर जानते हुए भी कहना कि हाँ इतना ही तुम्हारा द्रव्य है, इस प्रकार धरोहरका अपहरण करना न्यासापहार है । अविकार, भूविक्षेप अादि के द्वारा दूसरों के अभिप्रायको जानकर ईर्षा आदिके कारण दुसरों के सामने प्रकट कर देना साकारमन्त्रभेद है।
अचौर्याणुनतके अतिचारस्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मान
प्रतिरूपकव्यवहाराः ॥ २७ ॥ स्तेननयोग, तदाछुतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम. हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपकव्यवहार ये अचौर्यागुततके अतिचार है।