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________________ चोरको चोरी करनेके मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तस्वार्थवृत्ति हिन्दी - सार [ ७२८-२९ लिये स्वयं मन वचन और कायसे प्रेरणा करना अथवा दूसरे से प्रेरणा कराना, इसी प्रकार चोरी करने वालेकी अनुमोदना करना स्तेनप्रयोग है । चोरके द्वारा चुराकर लाई हुई वस्तुका खरीदना तदाहृतादान है । बहुमूल्य वस्तुओंको कम मूल्य में नहीं लेना चाहिये और कम मूल्य वाली वस्तुओंको अधिक मूल्यमें नहीं देना चाहिये इस प्रकारकी राजाकी आज्ञा के अनुसार जो कार्य किया जाता है वह राज्य कहलाता है। उचित मूल्यसे विरुद्ध अनुचित मूल्य में देने और लेने को अतिक्रम कहते हैं । राजाकी आज्ञाका उल्लंघन करना अर्थात् राजाकी आज्ञा के विरुद्ध देना और लेना विरुद्धराव्यासिकम है। राजाकी आज्ञा बिना यदि व्यापार किया जाय और राजा उसे स्वीकार कर ले तो वह विरुद्धरास्यातिकम नहीं है । ४६० नापने के प्रस्थ आदि पात्रको मान और तौलने के साधनों को उन्मान कहते है । कम परिमाण वाले मान और उन्मानके द्वारा किसी वस्तुको देना और अधिक मान और उन्मान के द्वारा लेना हीनाधिकमानोन्मान है। लोगोंको ठगनेके लिये कृत्रिम खोटे सुवर्ण ध्यादिके सिक्कोंके द्वारा क्रय-विक्रय करना प्रतिरूपकव्यवहार है । ब्रह्मचर्याणुत्रतके अतिचार परविवाहकरणेत्यरिकापरिगृहीता परिगृहीतागमनानङ्गक्रीडाका मतीवाभिनिवेशाः ||२८|| पर विवाहकरण, परिगृहीतेश्वरिकागमन, अपरिगृहीतेत्वरिकागमन, अनङ्गक्रीड़ा और कामतीश्राभिनिवेश ये ब्रह्मचर्याशुत्रतके पाँच अतिचार हैं । दूसरों के पुत्र आदिका विवाह करना या कराना परविवाह करण है। विवाहित सधवा अथवा विधवा स्त्रीको जो व्यभिचारिणी हो परिगृहीतेत्यरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रियोंसे बातचीत करना, हाथ, चक्षु, आदिके द्वारा किसी अभिप्रायको प्रकट करना, जघन स्तन मुख आदिका देखना इत्यादि रागपूर्वक की गई दुबेष्टाओं का नाम परिगृहीतेत्यरिकागमन है । स्वाभीरहित वेश्या आदि व्यभिचारिणी स्त्रियोंको अपरिगृहीतेश्वरिका कहते हैं। ऐसी स्त्रियों से संभाषण आदि व्यवहार करना अपरिगृहीतेत्यरिकागमन है । गमन-शब्द से जघन स्तन मुख आदिका निरीक्षण, संभाषण, हाथ भ्रूक्षेप आदि से गुप्त संकेत करना आदि ही विवक्षित हैं। कामसेबनके को छोड़कर अन्य स्तन आदि अङ्गसे क्रीड़ा करना अनङ्गक्रीडा है | कामसेवनमें अत्यधिक इच्छा रखना कामतीत्राभिनिवेश है। कामसेषन काल में भी यह दोष होता है तथा दीक्षिता, कन्या, तिर्यञ्चणी आदिके साथ कामसेवन करना भी कामतीनाभिनिवेश है । परिपरिमाणात अतिचार क्षेत्र वास्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमाः ॥ २९ ॥ क्षेत्र यास्तु हिरण्य-सुवर्णं, धन-धान्य, दासी दास और कुप्य इन वस्तुओं के प्रमाणको लोभ के कारण उल्लंघन करना ये क्रम से परिप्रह परिमाणानत के पाँच प्रतिचार हैं । अनाजकी उत्पत्ति स्थानको क्षेत्र-खेत कहते हैं। रहनेके स्थानको वास्तु कहते हैं। चाँदीको हिरण्य और सोनेको सुवर्ण कहते हैं। गाय भैंस हाथी घोड़े आदिको धन तथा गेहूँ चना ज्वार मटर वर धान आदि अनाजोंको धान्य कहते हैं। नौकरानी और नौकरको दासी दास कहते हैं। बस कपास चन्दन आदिको कुप्य कहते हैं ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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