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४५६ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
[ २३.२४ "जा आत्मघाती व्यक्ति हैं वे अति अन्धकारसे आवृत असूर्यलाकमें अनेक प्रकार के दुःख भोगते हैं ?"
जिनागम में कहा है, कि-"रागादिफा उत्पन्न न होना ही अहिंसा है, रागादिकी उत्पत्ति हो हिंसा है।"
सल्लेखनामें आत्मघात न होनेका एक कारण यह भी है कि वणिकको अपने घर के विनाशकी तरह प्रत्येक प्राणीको मरण अनिष्ट है। वणिक बहुमूल्य द्रव्योंसे भरे हुए अपने घरका विनाश नहीं चाहता है। लेकिन किसी कारणसे विनाशके उपस्थित होने पर अणिक उस घरकी छोड़ देताई यसविसम्रयत्न करताजससे द्रव्योंका नाश न हो । उसी प्रकार व्रत और शोलका पालन करनेवाला गृहम्थ भी व्रत और शीलके आश्रय स्वरूप शरीरका विनाश नहीं चाहता है। लेकिन शरीरविनाशके कारण उपस्थित होने पर संयमका धात न करते हुए धीरे धीरे शरीरको छोड़ देता है. अथवा शरीरके छोड़नेमें असमर्थ होने पर और कायविनाश तथा आत्मगुणविनाशके युगपन् उपस्थित होने पर आस्माक गुणोंका विनाश जिस प्रकार न हो उस प्रकार प्रयत्न करता है। अतः सल्लेखना करनेवालको आत्मघातका पाप किसी भी प्रकार संभव नहीं है. । गृहस्थोंकी तरह मुनियोंको भी आयुके अन्तमें समाधि-मरण बतलाया है।
सम्यग्दर्शन के अतिचारशङ्काकाङ्क्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतिचाराः ॥ २३ ॥
शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यहष्टिसंस्तव थे सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं।
__ जिनेन्द्र भगवान्के वचनों में सन्देह करना-जैसे निम्रन्थों के मुक्ति बतलाई है उसी प्रकार क्या सप्रन्थों को भी मुक्ति होती है ? अथवा इसलोकभय, परलोकभय, आदि सात भय करना शंका है। इसलोक और परलोकके भोगोंकी वाञ्छा करना कांक्षा है। रत्नत्रयधारकोंके मलिन शरीरको देखकर यह कहना कि ये मुनि स्नान आदि नहीं करते इत्यादि रूपसे ग्लानि करना विचिकित्सा है। मिश्यादृष्टियोंके ज्ञान और चारित्रगुणकी मनसे प्रशंसा करना अन्यदृष्टिप्रशंसा है। और मिश्यादृष्टि के विद्यमान और अविद्यमान गुणोंको वचन से प्रकट करना अन्यदृष्टिसंस्तव है।।
प्रश्न-सम्यग्दर्शन के आठ अंग है अतः अतिचार भी आठ ही होना चाहिये ।
उत्तर-व्रत और शीलोंके पाँच पाँच ही अप्तिचार बतलाये हैं अतः अतिचारोंक वर्णनमें सम्यग्दर्शनके पॉच ही अतीचार कहे गये हैं। अन्य तीन अतिचारोंका अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तवमें अन्तर्भाव हो जाता है जो मिथ्याष्टियोंकी प्रशंसा और स्तुति करता है यह मूढदृष्टि तो है ही, वह रत्नत्रयधारोंके दोषोंका उपगूहन ( प्रगट नहीं करना ) नहीं करता है, स्थिति करण भी नहीं करता है, उससे वात्सल्य और प्रभावना भी संभव नहीं है। अतः अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तवमें अनुपगृहन आदि दोषोंका अन्तर्भाव हो जाता हैं।
श्रत और शीलों के अतिचार
व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।। २४ ॥ __ पांच अणुव्रत और सात शीलों के क्रमसे पाँच पाँच अतिचार होते हैं । यद्यपि प्रतों के ग्रहण करनेसे ही शोलोंका ग्रहणहो जाता है लेकिन शीलका पृथक् ग्रहण प्रतोसे शीलों में विशेषता