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________________ ३४८ तत्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सा [ १४१४-१५ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मतिज्ञानकी उत्पत्तिके कारण - तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ॥ १४ ॥ मतिज्ञान पाँच इन्द्रिय और मनके निमित्तसे उत्पन्न होता है । परम ऐश्वर्यको आम करनेवाले आमाको इन्द्र और इन्द्रके लिङ्ग (चिह्न) को इन्द्रिय कहते हैं । मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम होनेपर आत्माको अर्थ की उपलब्धि में जो सहायक होता है वह इन्द्रिय है । अथवा जो सूक्ष्म-अर्थ ( आत्मा ) का सद्भाव सिद्ध करे वह इन्द्रिय है। स्पर्शन आदि इन्द्रियके व्यापारको देखकर आत्माका अनुमान किया जाता है। अथवा नामकर्मकी इन्द्र संज्ञा है और जिसकी रचना नामकर्म के द्वारा हुई हो वह इन्द्रिय है। अर्थात् स्पर्श, रसना आदिको इन्द्रिय कहते हैं । मनको अनिन्द्रिय कहते हैं। अनिन्द्रिय, मन, अन्तःकरण ये सब पर्यायवाची शब्द हैं । प्रश्न- स्पर्शन आदिकी तरह मनको इन्द्रका लिङ्ग ( अर्थोपलब्धि में सहायक ) होनेपर भी अनिन्द्रिय क्यों कहा ? उत्तर - यहाँ इन्द्रिय के निषेध का नाम अनिन्द्रिय नहीं है किन्तु ईषत् इन्द्रिय का नाम अनिन्द्रिय है। जैसे 'अनुदारा कन्या' ( विना उदर की कन्या) कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि उसके 'उदर है ही नहीं' किन्तु इसका इतना ही अर्थ है कि उसका उदर छोटा है । मनको अनिन्द्रिय इसीलिये कहा है कि जिस प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियोंका स्थान और विषय निश्चित है इस प्रकार मनका स्थान और विषय निश्चित नहीं है। तथा चक्षु आदि इन्द्रियाँ कालान्तरस्थायी है और मन क्षणस्थायी है । मनको अन्त:करण भी कहते हैं क्योंकि यह गुणदोपादि के विचार और स्मरण आदि व्यापारों में इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं रखता है और चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियों की तरह पुरुषों को दिखाई नहीं देता । "अनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो वा" इस नियम के अनुसार पहिले मतिज्ञान का वर्णन होने से इस सूत्र में भी मतिज्ञानका ही वर्णन समझा जाता। फिर भी मतिज्ञानका निर्देश करनेके लिये सूत्र में दिया गया 'तत्' शब्द यह बतलाता है कि आगे सूत्र में भी मतिज्ञानका सम्बन्ध है । अर्थात् अवग्रह आदि मतिज्ञानके ही भेद हैं। 'तत्' शब्द के बिना यह अर्थ हो जाता कि मति, स्मृति आदि मतिज्ञान है और श्रुत इन्द्रिय और अनिन्द्रियके निमित्तसे होता है तथा अवग्रह आदि श्रुत के भेद हैं। मतिज्ञानके भेद अग्रहायधारणाः ।। १५ ।। मतिज्ञानके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद है । विपत्र और विपयी अर्थात् पदार्थ और इन्द्रियोंके सम्बन्ध होनेपर सबसे पहिले सामान्य दर्शन होता है और दर्शनके अनन्तर जो प्रथम ज्ञान होता है वह अवग्रह है । अर्थात् प्रत्येक ज्ञानक पहिले दर्शन होता है। दर्शनके द्वारा वस्तुकी सत्तामात्रका ग्रहण होता है. जैसे सामने कोई वस्तु है । फिर दर्शनके बाद यह शुक्ल रूप है इस प्रकार के ज्ञानका नाम मह है । वह जाने हुये अर्थको विशेषरूपसे जानने की इच्छा के बाद ऐसा होना चाहिए' इस प्रकार भवितव्यता प्रत्यय रूप ज्ञान को ईहा कहते हैं । जैसे यह
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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