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________________ १४१६] प्रथम अध्याय ३४५ शुक्ल वस्तु बलाका (बकपंक्ति ) होना चाहिए । अथवा ध्वजा होना चाहिए । इहा कानको संशय नहीं कह सकते क्योंकि यथार्थम ईहामें एक वस्तुक ही निर्णयकी इच्छा रहता है जैसे यह बलाका होना चाहिय । विशेष चिन्होंको देखकर उस बस्तुका निश्चय कर लेना अवाक जेसेजमाई श्रीखेतविमिनाया नोहारजनिश्चय करना कि यह बलाका ही है। अवायसे जाने हुये पदार्थको कालान्तरमें ही भूलना धारणा छ । धारणा लान स्मृति में कारण होता है। मतिज्ञानके उत्तरभेदबहुबहुविवक्षिप्रानिःसृताऽनुक्तध्रुवाणा मेतराणाम् ॥ १६ ॥ __ बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनस उलटे एक, एकविंध, अक्षित, निःसृत, उक्त और अघुत्र इन बारह प्रकार के अर्थोका अवग्रह आदि ज्ञान होता है। एक ही प्रकारके बहुत पदार्थोंका नाम बहु है। बहु शब्द संख्या और परिमाणको बतलाता है जैसे 'बहुत आदमी' इस वाक्यमें बहुन शब्द दो से अधिक संख्याको बतलाता है। और बहुत दाल भात' यहाँ बहुशब्द परिमाणवाची है । अनेक प्रकारक पदार्थोको बहुविध कहते हैं । जिसका ज्ञान शीन हो जाय बह क्षिम है। जिस प्रदार्थ के एकदेशको देखकर गर्वदेशका ज्ञान हो जाय वह अनिःसृत है। वचनस विना कहे जिस वस्नुका ज्ञानहो जाय वह अनुक्त है। बहुत काल तक जिसका यथार्थज्ञान बना रहे वह ध्रुव है। एक पदार्थ को एक और एक प्रकार के पदार्थाको एकविध कहते हैं। जिसका ज्ञान शीघ्र न हो बाद अक्षिप्र है। प्रकट पदार्थों को निःसत कहते हैं। वचन को सुनकर अर्थ का ज्ञान होना उक्त है । जिसका नाम बहुत समय तक एकसा न रहे वह अचव है। उक्त बारह प्रकार के अर्थों के इन्द्रिय और मनके द्वारा श्रवग्रह आदि चार ज्ञान होते हैं। अतः मतिज्ञानके १२x२x६-२८८ भेद हुये। यह भेद अर्थावग्रह के हैं। व्यजावग्रहके ४८ भेद आने वनलाये जायगे। इस प्रकार मनिज्ञानके कुल २८८४४१-६३६ भेद होते हैं। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशम के प्रकर्षस बहु आदिका ज्ञान होता है और ज्ञानावरण के क्षत्रापशमके अप्रकर्षसे एक आदि पदार्थों का ज्ञान होता है। बहु और बहुविधिमें भेद-एक प्रकारके पदार्थाको बहु और बहुत प्रकारके पदाओंको बहुविध कहते हैं। उक्त और निःसत में भेद--दूसरे के उपदेशपूर्वक जो ज्ञान होता है वह उक्त है, और परोपदेशके बिना स्वयं ही जो ज्ञान होता है वह निःसृत है। ___कोई क्षिप्रानःसृतः-एसा पाठ मानते हैं । इसका अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति कानसे शब्दको सुनकर ही यह शब्द मोरका है अथवा मुर्गका है. यह समझ लेता है। कोई शब्दमात्रका ही ज्ञान कर पाता है। इनमें यह मयूरका ही शब्द है अथवा मुर्गका हो शब्द है इस प्रकारका निश्चय हो जाना निःसृत है। ध्रुवावग्रह र धारणा में भेद-प्रथम समय में जैसा अपग्रह हुआ है दिनीयादि समयों में उसी रूप में वह बना रहे, उससे कम या अधिक न हो इसका नाम ध्र वावग्रह है। ज्ञानाधरणकमके अचापशमकी विशुद्धि और संक्लेशक मिश्रणसे कभी अल्पका अवग्रह, कभी बहुतका त्रग्रह, इस प्रकार कम या अधिक होते रहना अभ्र वावग्रह है, किन्तु धारणा गृहीत अर्थी को कालान्तर में नहीं भूलनेका कारण होती है। धारणाले ही कालान्तर में किसी वस्तुका स्मरण हाना है । इस प्रकार इन में अन्तर है ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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