SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थवृत्ति - हिन्दी-सार अर्थस्य ॥ १७ ॥ ऊपर कड़े गए बहु आदि बारह भेद अर्थ के होते हैं। चक्षु आदि इन्द्रियोंके विषयभूत स्थिर और स्थूल वस्तुको अर्थ कहते द्रव्यको भी अर्थ कहते हैं । ३५० [ १।१८-१९ यद्यपि बहु आदि कहने से ही यह सिद्ध हो जाता है कि बहु आदि अर्थ ही हैं । लेकिन इस सूत्र को बनाने का प्रयोजन नैयायिकके मतका निराकरण करना है । नयायिक मानते हैं कि स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श आदि पाँच गुणोंका ही ज्ञान होता है का नहीं। लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि उनके मत में गुण अमूर्त हैं। और अमूर्त वस्तु के साथ मूर्त इन्द्रियका सन्निकर्ष नहीं हो सकता है। पर हमारे (जैनकि ) मत के अनुसार इन्द्रियसे द्रव्यका सन्निकर्ष होता है और चूँकि रूप आदि गुण द्रव्य से पृथक हैं अतः द्रव्य ग्रहण होनेपर रूप आदि गुणोंका ग्रहण हो जाता है। द्रव्य के सन्निकर्म से तदभन गुणों में भी सर्षका व्यवहार होने लगता है, वस्तुतः उनसे सीधा सन्निकर्ष नहीं है। व्यञ्जनावग्रह व्यञ्जनस्य [वग्रहः ॥ १८ ॥ अव्य शब्द आदि पदार्थों का केवल अवग्रह ही होता है, ईहादि तीन ज्ञान नहीं होते । बहु आदि बारह प्रकार के अव्यक्त अर्थो का अवग्रह ज्ञान चक्षु और मनको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंसे होता है । अतः व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञानके (२५८ भेद होते हैं । पण श्रीमच्हा करनेको व्यञ्जनाग्रह कहते हैं। जिस प्रकार नवीन मिट्टीका बर्तन एक, दो बूँद पानी डालनेसे गीला नहीं होता है लेकिन बार बार पानी डालनेसे वही वर्तन गीत्या हो जाता है उसी प्रकार एक, दो समय तक श्रोत्रादिके द्वारा शब्द आदिका स्पष्ट ज्ञान नहीं होता तब तक व्यञ्जनवग्रह ही रहता है और स्पष्टज्ञान होनेपर उस अर्थ में ईहा आदि ज्ञान भी होते हैं। यह सूत्र नियामक है अर्थात् यह बतलाता है कि व्यञ्जन अर्थका अवग्रह ही होता है ईहादि नहीं । न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् || १९ ॥ चक्षु और मनके द्वारा व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है। चक्षु और मन अप्राप्यकारी है अर्थात् ये बिना स्पर्श या सम्बन्ध किये ही अर्थ का ज्ञान करते हैं। स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ आग्न को छूकर यह जानती हैं, कि यह गर्म है किन्तु चक्षु और मन पदार्थ के साथ सन्निकर्ष ( सम्बन्ध ) के बिना ही उसका ज्ञान कर लेते हैं । आगम और युक्ति के द्वारा चक्षुमें अप्राप्यकारिताका निश्चय होता है। आग में वाय है कि-श्रोत्र स्पृष्ट शब्द को जानता हूं। स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय तथा चारोन्द्रिय अपने स्पर्श रस और गन्ध चिपयों को स्पृष्ट और बद्ध अर्थात् पदार्थों के सम्बन्ध से इन्द्रियमें अकार का रासायनिक सम्बन्ध होने पर ही जानती है। लेकिन चक्षु इन्द्रिय सम्बन्ध के बिना दूर से ही रूपको अस्पृष्ट और अबद्ध रूपसे जानती है। इस विषय में युक्तिभी है-- यदि चक्षु माध्यकारी होता तो अपनी आखमें लगाये गये अंजन का प्रत्यक्ष होना चाहिये था। लेकिन ऐसा नहीं होता है। दूसरी बात यह भी है कि यदि चक्षु प्राप्यकारी हो तो उसके द्वारा दूरवर्ती पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिये। जय कि चक्षु पासके पदार्थ (अंजन) को नहीं जानता है और दूर पदार्थों को जानता है तो यह निर्विवाद सिद्ध है कि चक्षु अप्राप्यकारी हैं।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy