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________________ १४२० प्रथम अध्याय श्रुतज्ञान का वर्णनश्रुतं मतिपूर्व द्वथनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥ श्रुतिज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है और उसके दो, अनेक तथा बारह भेद है। मतिक्षान श्रुतज्ञानका कारण है। पहिले मतिज्ञान होता है और बादमें श्रुतज्ञान । किसीका ऐसा कहना ठीक नहीं है कि मतिज्ञानको श्रुतज्ञानका कारण होनेसे श्रुतज्ञान मतिशान ही है पृथक् ज्ञान नहीं है । क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि कार्य कारणके समान ही होता है। घटके कारण अधिीि ने हावेशित गार झाडाहानिरूप नहीं होता है। अतः मृतझान मतिज्ञानसे भिन्न है। मतिज्ञान श्रुतज्ञानका निमित्तमात्र है। श्रुतशान मतिरूप नहीं होता । मतिज्ञानके हानेपर भी बलवान् श्रुतावरण कर्मके उदय होनेसे पूर्ण श्रुतक्षान नहीं होता। - श्रुवज्ञानको जो अनादिनिधन बतलाया है वह अपेक्षाभेदसे हो। किसी देश या काल में किसी पुरुषने श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिनहींकी है । अमुक द्रव्यादिकी अपेक्षासे झानका आदि भी होता है तथा अन्त भी | चतुर्थ श्रादि कालोंमें, पूर्वविवेह आदि क्षेत्रों में और अल्पके आदिमें शुतज्ञान सामान्य अर्थात् सन्ततिकी अपेक्षा अनादिनिधन है । जैसे अंकुर और बीजकी सन्तति अनादि होती है । लेकिन तिरोहित श्रुत-ज्ञानका वृषभसेन आदि गणधरोंने प्रवर्तन किया इसलिए यह सादि भी है। भगवान् महावीरसे जो शन्दवर्गणाएँ निकली चे नष्ट हई अतः उनकी अपेक्षा तज्ञानका अन्त माना जाता है। अतः श्रुतज्ञान सादि हे और मतिजानपूर्वक होता है। मीमांसक वेदको अपौरुषेय मानते हैं। लेकिन उनका ऐसा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि शब्द, पद और वाक्योंक समूहका नाम ही तो चेद है और शब्द आदि अनित्य हैं तो फिर वेद नित्य कैसे हो सकता है। उनका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है कि वेद यदि पौरुषेय होते तो वेदोंके कर्ताका स्मरण होना चाहिये। क्योंकि यह कोई नियम नहीं है कि जिसके कर्ताका स्मरण न हो वह अपौरुषेय है। ऐसा नियम होनेसे चोरीका उपदेश भी अपौरुषेय हो जायगा और अपोय होनेसे प्रमाण भी हो जायगा। अतः वेद पौरुषेय ही है। दूसरे वादी वेदके कर्ताको मानते ही हैं। नैयायिक चतुराननको, जैन कालासुरको और पौद्ध अष्टकको वेदका कर्ता मानते हैं। प्रश्न-प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय मति और श्रुत दोनों झानों की उत्पत्ति एक साथ होती है अतः श्रुतज्ञान मतिपूर्वक कैसे हुआ ? उत्तर-प्रथम सम्यकत्व की उत्पत्ति होनेसे कुमति और कुश्रुतज्ञान सम्यग्ज्ञान रूप हो जाते हैं। प्रथम सम्यक्त्वसे मति और श्रुवज्ञान में सम्यक्त्वपना आता है किन्तु श्रुतज्ञान की उत्पति तो मतिपूर्वक ही होती है। आराधनासारमें भी कहा है कि जिस प्रकार दीपक और प्रकाशमें एक साथ इत्पन्न होने पर भी कारण-कार्य भाव है उसी तरह सम्यग्दर्शन और सम्याशानमें भी । सम्यग्दर्शन पूर्वमें क्रमशः उत्पन्न ज्ञानों में सम्यक्त्व व्यपदेश का कारण होता है। यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ ही उत्पन्न होते हैं लेकिन सम्यम्वर्शन शान के सम्यक्त्वपने में हेतु होता है, जैसे एक साथ उत्पन्न होने वाले दीपक और प्रकाशमें दीपक प्रकाशका हेतु होता है। प्रश्न-अवज्ञानपूर्वक भी श्रुतज्ञान होता है। जैसे किसीको घटशब्द सुनकर घ भौर अक्षरोंका जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है, तथा घट शब्दसे घट अर्थका
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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