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________________ तस्वार्थवृत्ति-हिन्दी-सार [१२० ज्ञान श्रुतझान हैं। घट अर्थ के ज्ञानके बाद जलधारण करना घरका कार्य है. इत्यादि उत्तरवर्ती सभी ज्ञान श्रुतज्ञान है । अतः यहाँ श्रुत से श्रुतकी उत्पत्ति हुई। उसी प्रकार किसीने म देखा वह मतिज्ञान हुआ । और धूम देखकर अग्निको जाना यह न तज्ञान हआ। पनः अग्निज्ञान (श्रतमान) से अग्नि जलाती है इत्यादि उपसरकालीन झान श्रुतज्ञान है । इसलिये श्रुतज्ञान से भी श्रुतज्ञान की उत्पत्ति होती है। उत्तर- श्रुतज्ञान पूर्वक जो श्रुप्त होता है यह भी उपचारसे मत्तिपूर्वक ही कहा जाता है। क्योंकि मतिझानसे उत्पन्न होनेवाला प्रथम श्रुत उपचारसे मति कहा जाता है। अतः से श्रुतमे उत्पन्न होनेवाला द्वितीय श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही सिद्ध होता है। अतः मतिपूर्वक अस्त होता है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है । श्रुतज्ञानके दो भेद हैं- अङ्गबाह्य और अप्रविष्ट । अङ्गबाह्यके अनेक और अड़प्रविधके बारह भेद हैं। अझ्याह्य के मुख्य नौदह भेद निम्न प्रकार है५ सामायिक-इसमें विस्तारमे सामायिकका वर्णन किया गया है । २ स्तव-इसमें चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति है। ३ वन्दना-- इसमें एक तीर्थकर की स्तुति की जाती है। मार्गदर्शक :- आचावनिमसाविससोरिजाइयेहाशका निराकरण बतलाया है। ५ चैनयिक-इसमें चार प्रकारकी विनयका वर्णन है। ६ ऋतिकर्म--इसमें दीक्षा, शिक्षा आदि सरफर्मोंका वर्णन है। ७ दशकालिक-इसमें यत्तियोंके आचारका वर्णन है । इसके वृक्ष, कुसुम आदि नश अध्ययन है। ८ उत्तराध्ययन---इसमें भिक्षुओंके उपसर्ग सहनके फलका वर्णन है। ५ कल्पव्यवहार -इसमें यतियोंको सेवन योग्य विधिका वर्णन और अयोग्य सेधन करने पर प्रायश्चितका वर्णन है। १० कल्पाकल्प-इसमें यति और श्रावकों के किस समय क्या करना चाहिए क्या नहीं इत्यादि निरूपण है। ११ महाकल्प इसमें यत्तियोंकी दीक्षा, शिक्षा संस्कार आदिका वर्णन है। १२ पुण्डरीक—इसमें देवपदकी प्राप्ति कराने वाले पुण्यका वर्णन है। १३ महापुण्डरीक---इसमें देवानापदक देतुभूत पुण्यका वर्णन है। १४ अशीतिका-इसमें प्रायश्चित्तका वर्णन है। इन चौदह भेदोंको प्रकीर्णक कहते हैं। प्राचार्यों ने अल्प आयु, अल्पबुद्धि और हीनबलयाले शिष्यों के 'उपकार के लिये प्रकोपकों को रचना की है। वास्तव में तीर्थंकर परमदेव और सामान्य केबलियोन जो उपदेश दिया उसकी गणधर तथा अन्य आचार्याने शास्त्ररूपमें रचना की। और वर्तमान वालाती आचार्य जो रचना करते हूँ बह भी आगम के अनुसार होनेसे प्रकीर्णकरूपस प्रमाण है । प्रकोणंक शास्त्रका प्रमाण २५:३३८. श्लोक और १५ अक्षर हैं। अङ्गप्रविष्ट के बारह भेद है-- १ आचारा! -इसमें यत्तियों के आचारका वर्णन है। इसके पदों की संख्या अठारह हजार है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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