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तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार
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पूर्व और आग्नेयके अन्तराल में अश्व के समान मुखवाले आग्नेय और दक्षिण के अन्तराल में सिंहके समान मुखवाले, दक्षिण और नैर्ऋत्य अन्तराल में भषण- कुत्ते के समान मुखबा नैर्ऋत्य और पश्चिम अन्तराल में गर्वर ( उल्लू) के समान मुखबाट पश्चिम और बायके अन्तराल में शुकर के समान मुखबाले, वायव्य और उत्तर के अन्तराल में व्यायके समान मुखवाले. उत्तर और शान के अन्तराल काकक समान मुखबाल और ऐशान और पूर्व के अन्तराल में कपि (बन्दर) के समान मुखवाल मनुष्य होते हैं।
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हिमवान् पर्वतके पूर्व पार्श्व में मछली के समान मुखया और पश्चिम पार्श्व में काले मुखवाले, शिखरी पर्वत के पूर्व पार्श्व में मेघ के समान मुखबाले और पश्चिम पार्श्व में विद्युतके, दक्षिण दिशा के विजयार्द्धके पूर्व पार्श्व में गाय के समान मुखवाल और पश्चिम में पक समान मुखवाले और उत्तर दिशा में विजयाद्ध के खूब पार्श्वमें हाथी के समान मुखवाल और पश्चिम पार्श्वमें दर्पण के समान मुखबाल मनुष्य होते हैं।
एक पैरवाले मनुष्य मिट्टी खाते हैं और गुहाश्रमें रहते हैं । अन्य मनुष्य वृक्षांके नीचे रहते हैं और फल खाते हैं। इनकी आयु एक पल्य और शरीर की ऊँचाई दो
हजार धनुष हैं ।
उक्त चौबास द्वीप लवण समुद्र के भीतर हैं। इसी प्रकार लवणसमुद्र के बाहर भी चौबीस द्वीप हैं। लवण समुद्रके कालोद समुद्रसम्बन्धी भी अड़तालीस द्वीप हैं । सब मिलाकर छयानवें म्लेच्छ द्वीप होते हैं। ये सब द्वीप जलबोर्य श्रमहाराज मनुष्य अन्तद्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं ।
पुलिन्द, शबर, यघन, खस, बर्बर आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ है ।
कर्मभूमियों का वर्णन -
भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ॥ ३७ ॥
पाँच भरत, पाँच ऐरावत और देवकुरु एवं उत्तर कुरुको छोड़कर पाँच विदेह- इस प्रकार पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं ।
इसके अतिरिक्त भूमियाँ भोगभूमि हो हैं किन्तु अन्तद्वीपों में कल्पवृक्ष नहीं होते । भोगभूमि के सब ममुष्य मरकर देव ही होते हैं। किसी आचार्यका ऐसा मत है कि चार अन्त हैं वे कर्मभूमिके समीप हैं अतः उनमें उत्पन्न होने वाले मनुष्य चारों गतियों में जा सकते हैं ।
मानुषोस र पर्वतके आगे और स्वयम्भूरमण द्वीप के मध्य में स्थित स्वयंप्रभ पर्वत पहिल जिनने द्वीप हैं उन सबमें एकेन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीव ही होते हैं। ये द्वीप कुमभूमि कहलाते हैं। इनमें असंख्यात वर्षको श्रायुवाले और एक कोस ऊँचे पचेन्द्रिय तिर्य ही होते है, मनुष्य नहीं । इनके आदिके चार गुणस्थान ही हो सकते हैं ।
मानुषोत्तर पर्वत सत्रह सौ इक्कीस योजन ऊँचा है, और चार सौ तीस योजन भूमिके अन्दर है, मूलमें एक सौ बाईस योजन, मध्य में सात सौ तेतीस योजन, ऊपर चार सौ चौबीस योजन विस्तारवाला है । मानुपोत्तरके ऊपर चारों दिशाओंने चार चैत्यालय हैं ।
सर्वार्थसिद्धिको देनेवाला उत्कृष्ट शुभकर्म और सातवें नरक में ले जानेवाला उत्कृष्ट अशुभ कर्म यहीं पर किया जाता है। तथा असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कर्म चहीं पर