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________________ के :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज तृतीय अध्याय नरकोंका वर्णन रत्नझर्क वालुका मतमोमहातमः प्रभा भूमयो घनाम्बुवताकाशप्रतिष्ठाः साधोः ॥ १ ॥ रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभातमः प्रभा और महातमः प्रभा ये सात नरक क्रम मे नीचे-नीचे स्थित हैं। ये क्रमशः घनोदधिवात वलय, घनवातवलय और तनुवातवलयसे वेष्टित है। और तीनों वातवलय आकाशके आश्रित हैं। रत्नप्रभा सहित भूमि रत्नप्रभा है, इस में मन्द अन्धकार हूँ शर्कराप्रमा सहित भूमि शर्कशप्रभा है, इसमें बहुत कम तेज है । बालुकाप्रभा भूमि अन्धकारमय है। आगेकी भूमियों उत्तरोत्तर अन्धकारमय ही हैं । बालुका. प्रभा स्थान में बालिकाप्रभा भी पाठ देखा जाता है। महातमःप्रभा का तमस्तमःप्रभा यह दूसरा नाम है। ये बातवलय नरकोंड नीचे भी है। मनोदधिवातबलय गोमूत्र के रंगके समान है। धनवान मूंग के रंग का है। तमुत्रात अनेक रंगका है। तीनों वातवलय क्रमशः लोकके नीचे के भागने तथा सप्तमपृथिवीके अन्तिम भाग तक एक बाजू में बीस बीस हजार योजन मोटे हैं। सप्तमपृथिवीक अन्तनं क्रमशः सात, पाँच और धार योजन मोटे हैं। फिर क्रमशः घटते हुए मध्यलोक पांच, चार और तीन योजन मोटे रह जाते हैं। फिर क्रमशः बढ़कर ब्रह्मलोक के पास सात पांच और चार योजन मोटे हो जाते हैं । पुनः क्रमशः घटकर लांक के अन्तिम भाग में पांच चार और तीन योजन रह जाते हैं। लोक शिवरपर दो कोस, एक कोस तथा सवा चार सी धनुष कम एक कोश प्रमाण मोटे हैं । नरकों का विस्तार इस प्रकार है प्रथम पृथिवो एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। इसके तीन भाग है- १ खरभाग २ पङ्कभाग और अबहुलभाग । खरभागका विस्तार सोलह हजार योजन, पङ्कभागका चौरासी हजार योजन और बहुलभागका अस्सी हजार योजन है । खरभागके ऊपर और नीचे एक एक हजार योजन छोड़कर शेष मागमे तथा पंकभाग भवनवासी और व्यन्तरदेव रहते हैं और अबदुलके भाग नारको रहते हैं । द्वितीय आदि पृथिवियों का विस्तार क्रमसे ३२, २८, २४, २०, १६ और - हजार योजन है । सानों नरकोंक प्रस्तारों की संख्या क्रम १३, २२,, ७, ५, ३, और ६ है । प्रथम नरक में १३ और सप्तम नरक में केवल एक प्रस्तार है । सातों नश्कों के रूदनाम इस प्रकार हैं ४ घम्मा २ वंशा ३ ला या मेघा ४ अखना ५ अरिष्टा ६ मघवी और ७ माघत्री । सातों नरको त्रिलोकी संख्या को बतलाते हैं- तासु त्रिंशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशद शत्रिपञ्चोनें कनर कशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ।। २॥ उन प्रथम आदि नरकों में क्रम से तीन लाख, पच्चीस लाख पन्द्रह लाख, दश लाख, तोन लाख, पाँच कम एक लाख और पांच बिल हैं। सम्पूर्ण बिलों की संख्या चौरासी लाख है ।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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