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________________ ३८० तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [३३-५ नारकियोंका वर्णन-- नारका नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः ।। ३ ।। नारकी जीव सदा ही अशुभतर लश्या, परिणाम, दह, घेदना और विक्रियावाले दगदर्शकनके आपश्चिारावासातीमा पासोश्यायें होती है। प्रथम और द्वितीय नरकमें कापोत लेश्या होती है। तृतीय नरकक उपस्मिागर्म कापोत और अधोभागमें नील लेश्या है । चतुर्थ नरक में नील लश्या है । पञ्चम नरकम ऊपर नील और नीचे कृष्ण लेश्या है। छठवें और सातवें नरक कृष्ण और परम कृष्णा लेश्या है। उक्त वर्णन द्रव्यलेश्याओं का है जो प्रायुपर्यन्त रहती हैं। भावलेश्या अन्तमुहूर्त में बदलती रहती हैं, अतः उनका वर्णन नहीं किया गया। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द का परिणाम कहते हैं। शरीर को दह कहते हैं। अशुभ नामकर्मके उदयसे नारकियों के परिणाम और शरीर अशुभतर होते हैं। प्रथम नरकमें नारकियों के शरीर की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह अगल है। आगेके नरकोंमें क्रमसे दुगुनी २ ऊँचाई होती गई है, जो सातवें नरकमें ५५० धनुप हो जाती है। शीत और उष्णतासे होनेवाले दुःखका नाम वेदना है। नारकियोंको शीत और उष्णताजन्य तीन दुःख होता है। प्रथम जर कसे चतुर्थ नरक तक उष्ण वेदना होती है । पञ्चम नरकके ऊपरके दो लाख बिलोंमें उष्ण वेदना है और नीचके एक लाख बिलोंमें शीत वेदना है। मतान्तरसे पांचवें नरकके ऊपरके दो लाख पच्चीस बिलों में उष्ण वेदना तथा २५ कम एक लाख बिलोंमें शीत वेदना है। छठे और सातवें नरक में उष्ण वेदना है। शरीरकी विकृतिको विक्रिया कहते है । अशुभ कमके उदयसे उनकी विक्रिया भी अशुभ ही होती है । शुभ करना चाहते हैं पर होतो अशुभ है। परस्परांदीरितदुःखाः ॥ ४ ॥ नारफी जीव परस्पर में एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं। वहा सम्यग्दष्टि जीव अवधिज्ञानसे और मिथ्या दृष्टि विभगावधिज्ञानसे दुरसे ही दुःखका कारण समझ लेते हैं और दुःखी होते हैं । पासमें आनेपर एक दूसरेको देखते ही क्रोध बढ़ जाता है पुनः पूर्व भवके स्मरण और तीन वैरके कारण वे कुत्तोंकी तरह एक दूसरेको भोंकते हैं तथा अपने द्वारा बनाये हुये नाना प्रकार के शत्रों द्वारा एक दूसरेको मारनेमें प्रवृत्त हो जाते हैं। इस प्रकार नारकी जीव रातदिन कुत्तोंकी तरह लड़कर काटकर मारकर स्वयं ही दुःख पैदा करते रहते हैं। एक दूसरे को काटते हैं, छेदते हैं. सीसा गला कर पिलाते है, बैतरिणीमें ढकेलते हैं, कड़ाहीमें झोंक देते हैं आदि । संकष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ।। ५ ॥ चौथे नरकसे पहिले अर्थात् तृतीय नरक पर्यन्त अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामोके धारक अम्बाम्बरोप आदि कुछ असुरकुमारों के द्वारा भी नार कियाँको दुःख पहुँचाया जाता है। असुरकुमार देव तृतीय नरक तक जाकर पूर्वभवका स्मरण कराके नारकियोंको परस्परमें लड़ाते हैं और लड़ाई को देखकर स्वयं प्रसन्न होते हैं। च शब्दसे ये असुरकुमार देव पूर्व सूत्र में कथित दुःख भी पहुँचाते हैं ऐसा समझना चाहिये।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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