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मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज
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प्रथम अध्याय मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर पाँच इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के भयोपशम होने पर मतिज्ञानके द्वारा जाने हुए पदार्थों को विशेषरूपसे जानना श्रुतज्ञान है । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी पदार्थों का जो स्पष्ट ज्ञान होता है वह अवधिज्ञान है । नीचे अधिक और ऊपर अल विषय को जानने के कारण इसको अवधि कहते हैं। देव अवधिज्ञानर नीचे सातवें नरक पर्यन्त और ऊपर अपने विमान की ध्वजा पर्यन्त देखते हैं। अथवा विषय नियत होने के कारण इसको अवधि कहते हैं । अवधिज्ञान रूपी पदार्थ को ही जानता है। दूसरेके मन में स्थित पदार्थको ( मन की बात को) जानने वाले ज्ञानको मनःपर्यय कहते हैं। मनःपयंग ज्ञानमें मनको सहायक होने के कारण मतिज्ञानका प्रसङ्ग नहीं हो सकता क्योंकि मन निमित्तमात्र होता है जैसे आकाश में चन्द्रमा को देखा यहाँ आकाश केवल निमित्त है अतः मन मनःपर्यय ज्ञान का कारण नहीं है। जिसके लिए मुनिजन बाह्य और अभ्यान्तर तप करते हैं उसे केवल ज्ञान कहते हैं । सम्पूर्ण द्रव्यों और उनको त्रिकालवती पर्यायों को युगपत् जानने वाले असहाय (दूसरे की अपेक्षा रहिन ) ज्ञान का केवलज्ञान कहते हैं।
केवल ज्ञान की प्राप्ति सबसे अन्तमें होती है अतः इसका ग्रहण अन्तमें किया है। केवलज्ञानके समीप में मनःपर्यय का ग्रहण किया है क्योंकि दोनों का अधिकरण एक ही है। दोनों यथाख्यातचारित्रवालेके होते हैं। केवलज्ञानसं अवधिज्ञान को दूर रखाइ क्योंकि घाह केवलज्ञानसे विप्रकृष्ट ( दूर) है। प्रत्यक्षज्ञामौके पहिले. परीक्षवान मति और श्रति को रखा है क्योंकि दोनों की प्राप्ति सरल है। सव प्राणी दोनों ज्ञानों का अनुभव करते हैं।
मति और श्रुतज्ञान की पद्धति श्रुत परिचित और अनुभूत है। वचन से सुनकर उसके एकबार स्वरूपसंवेदन को परिचित कहते हैं, तथा बार बार भावना को अनुभूत कहते है।
ज्ञान की प्रमाणता तत्प्रमाणे ॥ १० ॥
ऊपर कहे हुये मति, श्रुत, अवधि, मनःपय और केवल ये पाँचों ही ज्ञान प्रमाण है। अन्य सन्निकर्ष या इन्द्रिय अादि प्रमाण नहीं हो सकते । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहते हैं। यदि सन्निकर्प प्रमाण हो तो सूक्ष्म ( परमाणु आदि ) व्यवहित (राम, राव आदि) और विप्रकृष्ट (मेरु आदि) अर्थों का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि इन्द्रियों के साथ इन पदार्थोंका सन्निकर्ष संभव नहीं है। और उक्त पदार्थों का प्रत्यक्ष न होनेसे कोई सर्वज्ञ भी नहीं हो सकेगा। अतः सन्निकर्ष को प्रमाण मानने वालों ( नयायिक । क यहाँ सपन्नाभाष हो जायगा। दूसरी बात यह भी है कि चनु और मन अप्राप्यकार। (पदार्थसे सम्बन्ध किए बिना ही जानने वाले है। श्रतः सव इन्द्रियों के द्वारा सन्निकर्प न होनेसे सन्निकर्षको प्रमाण माननेमें अव्याप्ति दोष भी आता है। उक्त कारणोंसे इन्द्रिय भी प्रमाण नहीं हो सकती। चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय अल्प है और ज्ञेय अनन्त है।
प्रश्न-( नैयायिकजैन ज्ञानको प्रमाण मानते हैं अतः उनके यहाँ प्रमाणका फल नहीं बनेगा क्योंकि अर्थाधिगम ( ज्ञान ) को ही फल कहते हैं। पर जब वह ज्ञान प्रमाण हो गया तो फल क्या होगा ? प्रमाण तो फलबाला अवश्य होता है। सन्निकर्ष या इन्द्रिय को प्रमाण मानने में तो अर्थाधिगम (ज्ञान) प्रमाणका फल बन जाता है।