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________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [१०११-१२ उत्तर-यदि सन्निकर्ष प्रमाण है और अधिगम फल है तो जिस प्रकार सन्निकर्ष दो यस्तुओं (इन्द्रिय और घदादिअर्थ ) में रहता है उसी प्रकार अर्थाधिगमको भी दोनों में रहना चाहिये। और ऐसा होने पर घटादिकको भी ज्ञान होने लगेगा। यदि नैयायिक यह कहे कि आत्माको चेतन होनेसे झान आत्मामें ही रहता है तो उसका ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि नंयायिकके मतमें सब अर्थ स्वभावसे थचेतन है और आत्मामें चेतनत्व गुण का समवाय ( सम्बन्ध ) होनेसे आत्मा चेतन होता है । यदि नेयायिक आत्मा को स्वभावसे चेतन मानते हैं, तो उनके मत का विरोध होगा। क्योंकि उनके मतमें आत्माको भी स्वभावसे अचेतन बतलाया है। जैनोंक मतमें शान को प्रमाण मानने पर भी फलका अभाव नहीं होगा, क्योंकि अर्थके जान लेनेपर आत्मामें एक प्रकारकी प्रीति उत्पन्न होती है इसीका नाम फल है। अथवा उपेक्षा या अज्ञाननाशको फल कहेंगे। किसी वस्तुमें राग और द्वेष का न होना उपेक्षा है। तृण आदि वस्तुके ज्ञान होने पर उपेक्षा होती है। किसी पदार्थको जानने से उस विषयक अज्ञान दूर हो जाता है। यही प्रमाण के फल हैं। प्रश्न-यदि प्रमेयको जानने के लिये प्रमाणकी आवश्यकता है तो प्रमाणको जानने के लिये भी अन्य प्रमाणकी आवश्यकता होगी। और इस तरह अनवस्था दोष होगा। अप्रामाणिक अनन्त अर्थों की कल्पना करने को अनवत्या कहते हैं। उत्तर-प्रमाण दीपककी तरह स्व और परका प्रकाशक होता है। अतः प्रमाणको जाननेके लिये अभ्य प्रमाणकी आवश्यकता नहीं पाजस प्रकारक्षम अपनी ममाप्रकाश करता है और घटपटादि पदार्थो को भी प्रकाशित करता है उसी प्रकार प्रमाण भी अपनेको जानता है नथा अन्य पदार्थों को भी जानता है। यदि प्रमाण अपनेको नहीं जानेगा तो स्वाधिगमका अभाव होनसे स्मृतिका भी अभाव हो जायगा। और स्मृतिका अभाव होनेसे लोकव्यवहारका भी अभाव हो जायगा। क्योंकि प्रायः लोकव्यवहार स्मृतिके आधारपर ही चलता है। प्रमाणके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद बतलाने के लिये सूत्र में द्वियाचनका प्रयोग किया है। अन्य वादी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव इन प्रमाणोंको पृथक २ प्रमाण मानते हैं। पर वस्तुतः इनका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणमें ही हो जाता है। परोक्ष प्रमाण आये परोक्षम् ॥ ११॥ मति और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं । श्रुतज्ञानको मतिज्ञानके समीपमें होनेके कारण श्रुतज्ञानका प्रण भी आशब्दके द्वारा हो जाता है। इन्द्रिय, मन, प्रकाश और गुरुके उपदेश आदिको पर कहते हैं। मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणके श्योपशमको भी पर कहते हैं । उक्त प्रकार' 'पर' की सहायतासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है धड् परोक्ष है। प्रत्यक्ष प्रमाण प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। अक्ष आत्माको कहते हैं। जो ज्ञान, इन्द्रिय आदिकी सहायताके बिना केवल आमाकी सहायतासे उत्पन्न होते हैं वह प्रत्यक्ष है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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