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________________ मार्गदर्शतत्त्वार्थप्रेमिलाई श्रीसाविधिसागर जी महाराज [ १९ उत्तर-मिथ्याष्टि आदि चार गुणस्थानों में दशनमोहनीयक उदय आदिकी अपधाम भावोंका वर्णन किया गया है। और सासादनगुणग्थान, दानमहिनायके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम न होने पारिणामिक भावका सझाव आगममें कहा है। मिश्रगुणस्थानमें क्षायोपशमिक भाव होता है। प्रश्न-सर्वघाती प्रकृतियोंक उदय न होनेपर और देशघाती प्रकृनियों के उदय होनेपर नायोपशमिक भाव होता है। लेकिन सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति देशघाती नहीं है क्योंकि आगममें उसको सर्वघाती बतलाया है। अतः तृतीय गुप्मस्थान में क्षायोपमिक भाव कैसे संभव है ? उत्तर-उपचारसे सम्यम्मिध्यात्वप्रकृति भी देशघाती है। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति एकदेशसे सम्यबस्वका घात करती है । वह मिथ्यात्वप्रकृतिक समान सम्यक्त्वका सर्यघात नहीं करती। सम्यग्मिथ्यान्वप्रकृति के उदय होनेपर पर्वतके द्वारा उपदिष्ट तत्वोंमें चलाचलरूप परिणाम होते हैं। अतः सम्याम्मिथ्यात्यप्रकृति उपचारसे देशघाती है और देशघाती होनेसे तीसरे गुणस्थानमें क्षायोपशमिकभायका सात्र युक्तिसंगत है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औपमिक, क्षायिक और भायोपशमिक भाव होते हैं। असंयत औदायक मायसे होता है। मंयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायोपशमिक भाव होता है। चारों उपशमक गुणस्थानमें औपशामक भाव होता है । चारोंक्षपक, सयोगकेवली और अयोगेकेवली गुणस्थानों में क्षायिक भाव होता है । अल्पचहुबका वर्णन भी सामान्य और विशेषके भेदसे किया गया है। सामान्यसे अपूर्वकरण, अनिवृनिकरण और सूक्ष्मसापराय इन तीन उपशम गुणस्थानों में उपशमक सब से कम हैं। आठ समयों में कमसे प्रवेश करने पर इनकी जघन्य संख्या १, २, ३ इत्यादि है और उत्कृष्ट संख्या ५६, २४, ३०, ३६, १५, १८, १४, ५४ है। अपने २ गुणास्थान कालमें इनकी संख्या बराबर है। उपशान्तकपाय गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्याके वर्णनमें बतलाई जा चुकी है। उपशमक जीवों की संख्या सबसे कम होने के कारण पहिले इनका वर्णन किया गया है। तीन उपशमकों को कपाय सहित हानेसे उपशान्त कपायये पृथक् निर्देश किया गया है। तीन पक गुणस्थानवती जीव उपशमकांसे संख्यातगुते हैं। सूक्ष्मसाम्परायसं यत विशेप अधिक हैं। क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायमें उपशमक और क्षपक दोनों का प्रण किया गया है। श्रीणकपाय गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्याक वर्णनमें बतलाई जा चुकी है। सोगकेवली और अयोगकवली जीवों की संख्या प्रवेश की अपेक्षा बराबर है। अपने कालमें सर्वसयोगकेवलियों की संख्या ८५८५०२ है । अप्रमत्तानंयत संख्यातगने है। प्रमत्तसंयत संख्यातगुने हैं। संयतासंयन संख्यातगने हैं। मंयतासंयतों में अल्पबदुत्व नहीं है, क्योंकि संयतों की तरह इनमें गुणस्थान का भेद नहीं है। सामान सम्यग्दृष्टि संग्न्यानगुने '५२०५०.६० हैं। सम्यम्मिश्यादृष्टि संख्यानगुने १८४००-१००० हैं। असंयतसम्यग्दर्भात संख्यातगुने ७.0000००० हैं । मिथ्याष्ट्रि अनन्तगुने हैं। इमाप्रकार सत् संख्या आदि का गुणस्थानाम सामान्य की अपेक्षासे वर्णन किया गया है। विशेष की अपेक्षासे वर्णन विस्तारभय से नहीं किया है । सम्यग्ज्ञान का वर्णनमतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।। ९ ॥ मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पांच सम्यग्ज्ञान हैं।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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