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________________ ११८] प्रथम अध्याय ३४३ चारों क्षपक और अयोगकेवलीका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि चारों अपक और अयोगकेवली ये नियमसे मोक्षगामी होते हैं अतः इनका बीचमें मरण नहीं हो सकता। सयोगकेवलोका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है और एक जीचको अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि सयोगकेपली गुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर प्रयोगकेवली गुणस्थानको प्राप्त करता है। उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। क्योंकि कोई जीव आठ वर्ष के बाद में तपको ग्रहण करके केवलज्ञानको प्राप्त कर सकता है। अतः आठ वर्ष कम हो जानेसे कुछ कम पूर्वकोटि काल होता है। एक गुणस्थामर्सेदर्दूसरे गुणस्यमय मीनाशिक्षिक्सकरपुती उहाकुलस्थानकी प्राप्ति नहीं होती उतने कालको अन्तर कहते हैं।। अन्तरका विचार सामान्य और विशेष दो प्रकारसे होता है। सामान्यसे मिथ्याष्ट्रिगुणस्थानमें नाना जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहत है। उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर अर्थात् १३२ सागर है। क्योंकि कोई जीव चेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करनेपर उत्कृष्ट काल ६६ सागर तक सम्यक्त्वी रह सकता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त पर्यन्न सम्यग्मि यात्व गुणस्थानमें रहने के बाद पत्यके असंख्यात भाग बीत जानेपर औपशमिक सम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी योग्यता होती है। इतने अन्तर के बाद पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेकी योग्यता होती है। इस तरह वेदकसम्यक्त्वको पुनः ग्रहण करके ६६ सागर बिताता है। इस तरह दो बार छयासठ सागर अन्तर आ जाता है। __ सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधपुद्गलपरिवर्तन है। __सम्यगमिथ्याष्टिगुणस्थानमें नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनगुणस्थानकी तरह ही अन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। असंयतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयततक नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघग्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है। चारों उपशमकों के नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्व है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्नर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अधंपुद्गलपरिवर्तन है। चारों क्षपक और अयोगकेवीके नाना जीवोंकी अपेक्षा जयन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह माह है । एक जीवको अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगकेचलीके नाना जीव अथवा एक जावकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। सामान्य और विशेषके भेदसे भाव दो प्रकारका है। सामान्यमे मिथ्याष्टिगुणस्थानमें मिध्यात्य प्रकृतिका उदय होनेसे औदायिक भाव है। सासादनगुणस्थानमें पारिणःमिक भाव होता है। प्रश्न-अनन्तानुबन्धिकषायके उद्यसे द्वितीय गुणस्थान होता है अत: इस गुणस्थानमें औयिक भाव क्यों नहीं बतलाया ?
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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