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________________ तत्वार्यवृत्ति प्रस्तावना साधनोंको सत्ता है अर्थात् आध्यात्मिक दृष्टिसे जो अत्यधिक अनधिकार चेष्टा कर पर इको हस्तगत करनेके कारण मिध्यादृष्टि और बंधनान् है वे उस सत्ताका उपयोग दूसरी आत्माओं को कुचल नेमें करना चाहते हैं, और चाहते हैं कि संसारके अधिक से अधिक पदार्थोंपर उनका अधिकार हो और इसी लिप्साके कारण वे संघर्ष हिंसा अशान्ति ईर्षा युद्ध जंसी तामस भावनाओं का सृजन कर forest for कर रहे हैं। धन्य है, इस भारतको जो उसने इस बीसवीं सदीमें भी हिंसा बरता के इस दानवयुगमें भी उससे आध्यात्मिक मानवताका संदेश देनेके लिए गान्धी जैसे सन्तको उत्पन्न किया। पर हाय अभागे भारत, तेरे ही एक कपूतने, कपूतने नहीं, उस सर्वकषा संस्कृतिने जिसमें जातिगत उच्चत्व आदि कुभाव पुष्ट होते रहे हैं और जिसके नाम पर करोड़ों धर्मजीवी लोगों की आजीविका चलती है. उस सन्तके शरीरको बोलीका निशाना बनाया। गान्धीकी हत्या व्यक्तिकी हत्या नहीं है यह तो उस अहिसक सर्वसमा संस्कृतिके हृदयपर उस दानवी साम्प्रदायिक हिन्दूकी ओटमें हिंसक विद्वेषिजी सर्वसंस्कृति विषयक सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही होगा और सवसमा आध्यात्मिक अहिंसक संस्कृतिकं द्वारा आत्मस्वरूप और आत्माferent सम्यग्ज्ञान लाभ करके उसे जीवनमें उतारना होगा तभी हम बन्धनमुक्त हो सने स्वयं स्वतन्त्र रह सकेंगे और दूसरोंको स्वतन्त्र रहने की उच्चभूमिका तैयार कर सकेंगे । या संस्कृतिका प्रहार मोदक सारांश यह कि पतनका, नाहे वह सामाजिक हो राष्ट्रीय हो या वैयक्तिक--मूल कारण मिथ्यादर्शन अर्थात् वृष्टिका मिथ्यापन-स्वरूपविभ्रम ही है। दृष्टिमिव्यात्यके कारण ज्ञान मिया बनता है और फिर समस्त क्रियाएँ और आचरण मिथ्या हो जाते हैं। उत्थानका क्रम भी दृष्टि सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शनसे - प्रारम्भ होता है । सम्यग्दर्शन होते ही ज्ञानकी गति सम्यक् हो जाती है और समस्त प्रवृत्तियाँ सम्यकत्वको प्राप्त हो जाती है। इसप्रकार बन्धनका कारण मिथ्यात्व और मुक्तिका कारण सम्यक्त्व होता है। अध्यात्म और नियतिवाद का सम्यग्दर्शन- पदार्थस्थिति- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः " - जगतमें जो सत् हूँ उसका सर्वधा विनाश नहीं हो सकता और सर्वथा नए किसी असत्का सद्रूपमें उत्पाद नहीं हो सकता। जितने मौलिक द्रव्य इस जगत में अनादिसे विद्यमान हैं वे अपनी अवस्थाओंमें परिवर्तित होते रहते हैं। अनन्त जीव अनन्तानन्त पुगल अणु एक धर्मद्रव्य एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश और असंख्य कालाणु इन्द्रसे वह लोक व्याप्त है। मे छह जातिके द्रव्य मौलिक है, इनमेंसे न तो एक भी द्रव्य कम हो सकता है और न कोई नया उत्पन्न होकर इनकी संख्या में वृद्धि ही कर सकता है। कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यरूप में परिणमन नहीं कर सकता। जीव जीव ही रहेगा पुद्गल नहीं हो सकता। जिस तरह विजातीय द्रव्यरूपमें किसी भी व्यका परिणमन नहीं होता उसी तरह एक जीव दूसरे खजातीय जीवद्रव्यरूप या एक पुद्गल दूसरे सजातीय पुद् गलद्रव्यरूपमें परिणमन भी नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्यायों अवस्थाओंकी धारा प्रमाहित है। वह किसी भी विजातीय या सजातीय द्रव्यान्तरको धारामें नहीं मिल सकता। यह सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें असंभान्ति प्रत्येक मौलिकता है। इन द्रव्योंमें नर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशदव्य और कालद्रव्यों का परिणमन सदा शुद्ध ही रहता है, इनमें त्रिकार नही होता, एक जैसा परिणमन प्रतिसमय होता रहता है । जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में 'शुद्धपरिणमन भी होता है तथा अशुद्ध परिणमन भी इन दो द्रव्योंमें क्रियाशक्ति भी है जिससे इनमें हलन चलन आना जाना आदि क्रियाएँ होती हैं। शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं, वे जहाँ है वहीं रहते है। आकाश सर्वव्यापी है। धर्म और अधर्मं लोकाकाशकं बराबर हैं । पुद्गल और काल अणुरूप है। जीव असंख्यातप्रदेशी है और अपने शरीरप्रमाथ विविध आकारों में मिलता है। एक युगलद्रव्य ही ऐसा है जो सजातीय अन्य पुद्गलद्रव्य से मिलकर स्कन्ध बन जाता है और कभी कभी इनमें इतना रासायनिक मिश्रण हो जाता है कि उसके अणुओ की पृषक सलाका मान करना भी कठिन होता है। तात्पर्य यह कि जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्यमं अशुद्ध परिणमन होता है और वह एक दूसरे rx
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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