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________________ मह सहाज मार्गदर्शक : आचार्य श्री के निमित्तसे पुद्गलमें इतनी विशेषता है कि उसकी अन्य जागी पुगलोंगे मिलकर स्कन्ध-पर्याय भी होती है पर जीवकी दूसरे जीवसे मिलकर स्वच्छ पर्याय नहीं होती। दी विजातीय द्रव्य बैंकर एक पर्याय प्राप्त नहीं कर सकते। इन दो व्यकेि विविध परिणमनोंका स्थूलरूप यह दृश्य जगत् है । व्य-परिणमन- प्रत्येक द्रव्य परिणामनित्य है । नष्ट होती है उत्तर उत्पन्न होती है पर मूलद्रव्यकी धारा अविच्छिन्न चलती है। यही उत्पाद व्यव-ध व्यात्मकता प्रत्येक द्रव्यका निजी स्वरूप है। धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्यों का सदा शूद्ध परिणमन हो होता है। जीवद्रव्यभ जो मुक्त जीव हैं उनका परिणमन शुद्ध ही होता है कभी भी अशुद्ध नहीं होना । बगारी जीव और अनन्त पुद्गलद्रव्यका शुद्ध और अब दोनों ही प्रकारका परिणम होता है। इतनी विशेषता है है कि जो संसारी जीव एकवार मुक्त होकर शुद्ध परिणमनका अधिकारी हुआ वह फिर को भी अशुद्ध नहीं होगा, पर पुद्गलद्रव्यका कोई नियम नहीं है। वे कभी कन्ध वनकर अशुद्ध गणिमन करते हैं तो परिमाणुरूप होकर अपनी शुद्ध अवस्था में आ जाते हैं फिर स्कन्ध बन जाते हैं इस तरह उनका विविध परिणमन होता रहता है। जीव और पुनमें वैमाविकी शक्ति है, उनके कारण विभाव परिणमनको भी प्राप्त होते है। • प्रगतशक्ति-धर्म अधर्म, आकाश में तौन द्रव्य एक एक एक है। काळा असंख्यात हैं। प्रत्येकाला एक जगी शक्तियाँ है। बाकी विभागप्रतिछंदवादी शनि एक काही दूसरे में इस तरह परस्पर दाक्ति-विभिन्नता या परिणमनविभिन्नता नहीं है। पुद्गलद्रव्यके एक अणु जितनी शक्तियों में उतनी ही और भी ही दाक्तियाँ परिणमनयोग्यताएँ अन्य पुद्गलाओं में है। मूलत पुदगल अद्रव्यों में शक्तिभेद, योग्यताभेद या स्वभावभेद नहीं । यह तो सम्भव है कि कुछ पुद्गलाण मूलन विग्ध वाले हों और दूसरे मुलतः रुक्ष, कुछ पी और कुछ उष्ण, पर उनके वे मृग भी नियत नहीं है, गुणवाला भी अणु स्निग्धगुणवाना बन सकता है तस्मिम्यगुणवाला भी सीग भी उष्ण बन उकता है उष्ण भी मीन नात्पर्य यह किला ओम ऐसा कोई जातिभेद नहीं है जिसमे किसी भी गलाका पगलसम्बन्धी कोई परिणमन न हो सकता हो । पुद्गल के जितने भी परिणमन हो सकते है उन सबकी योग्यता और शक्ति प्रत्येक उद्या स्वभावतः हूँ। यही किलाती है। | स्वस्थ अवस्था पर्यायशक्तियां विभिन्न हो सकती हैं। जैसे किसी अग्निस्कन्पमें सम्मिनित परमाणुका उष्णस्पर्श और तेजोरूप था. पर यदि वह अग्निस्कन्धमे जुदा हो जाना कृष्णरूप हो सकता है, और यदि स्कल्प ही भस्म बन जाय भी सभी मांओंकर रूप और स्पर्श आदि फते हैं। I ४५ सभी जीवद्रव्योंकी मूल स्वभावतयों एक जैसी हैं, ज्ञानादि अनन्नगुण और अनन्त न्य परिणमनकी शक्ति मूलतः प्रत्येक जीवद्रव्य में है। हो, अनादिकालीन अशुद्धता के कारण उनका विकान विभिन्न प्रकार होता है। वाहे भव्य हो या अगला ही प्रकार प्रत्येक जीव एक जैसी शक्तिय आवार हैं। शुद्ध दशामें गभी एक जैसी यक्तिक स्वामी बन जाते है और प्रतिसमय अखण्ड शुद्ध परिणमनन रहते है। मारी जीवाम भी मुलतः सभी शक्तियां इन विशेष है कि भव्यजीवन केवल ज्ञानादि शक्तियोंके आविर्भावकी शक्ति नहीं मानी जाती उपयुक्त विवेचनमे एक वात्र निवादरूप स्पष्ट हो जाती है कि चाहे द्रव्य चेतन हो या अत्यंत अपनी अपनी चेतन-अनंतन शकि पनी है उनमें कहीं कुछ भी नापिता नहीं है अदा अन्य पक्तियां भी उन शेती और विलीन होती रहती है। पण सीमा उनिक द्रव्यों में परिणमनहर सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तरमें परिणमत नहीं कर सकता। अपनी धाराम सदा उसना परिणमन होता रहता है। द्रव्यगत मूल स्वभावकी अपेक्षा प्रत्येक द्रव्यके अपने परिणमन नियत है। किसी भी सभी दुगन्धी परियमन यथासमय हो सकते हैं और किसी भी जीवके जीवसम्बन्धी अनन्त परिणमन। यह तो सम्भव यह तो सम्भव है कि कुछ पक्तियों म भी कोई भी
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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