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________________ संस्कृति का सम्यग्दर्शन (२) कोई ऐसा ईश्वर नहीं जो जगतके अनन्त पदार्थोंपर अपना नांगवः अधिकार रखना हो. पूष्य पापका हिसाव रखता हो और स्वर्ग या नरक में जीवोंको भेजता हो, सष्टिका नियत्ता हो। (३) एक आत्माका दूसरी आत्मापर तथा जर द्रव्योंपर कोई स्वाभाविक अधिकार नहीं है। दुमरी आत्माको अपने अधीन बनानेकी चेष्टा ही अनधिकार चेष्टा अन एव हिना और मिथ्या दृष्टि है। (४) दूसरी आत्माएँ अपने स्वयंक विचारांमे यदि किगी एकको अपना नियन्ता लोक व्यवहारकेलिए नियुक्त करती या चुनती हैं तो यह उन आन्माओंका अपना अधिकार आ न कि उस चने जानेवाले व्यक्निवा जन्मसिद्ध अधिकार । अतः मारी लोक व्यवहार व्यवस्था सहयोगपर ही निर्भर न वि जन्मजान अधिकारपर । (५) ब्राह्मण क्षत्रिवादि वर्णव्यवस्था अपने गुणकर्मके अनुसार है जन्मसे नहीं 1 (६) गोत्र एक जन्ममें भी बदलता है, वह गुण-कर्मक अनसार पग्वितित होता है। (७) परद्रव्योंका मंग्रह और परिग्रह ममकार और अहंकारका हेतु हानेमे बन्धकारक है। (८) दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन बनाने की चेष्टाही मुमस्त अशान्ति दुख संघर्ष और हिंसाका मुल है। जहां तक अचेतन पदार्थोके परिग्रहका प्रश्न है यह छीनाझपटीका कारण होनसे राक्लेशकारक है, अतः हेय हैं । (९) स्त्री हो या पुरुष धर्म में उसे कोई रुकावट नहीं। यह जदी बात है कि स्त्री अपनी यारीमार्गदर्शक सिमाधीश्रीनवावाहीसमितरजीहारी हो।। (१०) किसी वर्गविशेषका जन्मजात कोई धर्मका का नहीं है। प्रत्यक आत्मा धर्मका अधिकारी है। ऐसी कोई क्रिया धर्म नहीं हो सकती जिसमें प्राणिमात्र का अधिकार न हो।। (११) भाषा भाषोंको दूसरेतक पहुँचानेका माध्यम। अतः जनताकी भाषा ही ग्राह्य है। (१२) वर्ण जाति रंग और देश आदिके कारण आत्माधिकारम भव नहीं हो सकता में सब शरी राश्रित है। (१३) हिंदू मसलमान सिख ईसाई जैन बौद्ध आदि पम्यभेद भी थाल्माधिकारके भेदक नहीं हैं। (१४) वरतु अनेकधर्मात्मवः है उसका विचार उदारदृष्टिले होना चाहिए। सीधी बात तो यह है कि हमें एक ईश्वरवादी शासकांस्कृतिका प्रचार इप्ट नहीं है। हम नो प्राणिमात्रको समन्नन बनाने का अधिकार स्वीकार करनेवालो सर्वसमभात्री संस्कृतिका प्रचार करना है। जबतक हम इस सर्वसमानाधिकारवाली मर्वसमा गंरकृतिका प्रचार नहीं करेंगे नबनक जातिगा उभ्वत्व नीचत्व, बाणाधित तुन्छन्व आदिक रषित विचार पीकी दरपीढ़ी मानवगमाजवी पतनकी ओर & जायगे। अतः मानय मगाजकी उन्नतिके लिए आवश्यक है कि संस्कृति और धर्म विषयक दर्शन स्पष्ट और सम्यक् हो। उसका आधार सवभूतमंत्री हो न वि वर्ग विशेषका प्रभुत्व या जाति विशेषका उच्चस्व । ___ इम तन्ह जब हम इस आध्याल्मिक संस्कृतिक विपलमें स्वयं सम्यग्दर्शन प्रान करंग तनी हम मानवजानिका विकास का मकंगे। अन्यथा यदि हमारी दृष्टि मिथ्या हुई जो हम तो पतित हैं ही अपनी सन्तान और मानव जातिका बड़ा भारी अहित जरा विषाक्त सत्रकला संस्कृतिका प्रचार करके करने । अत: मानवसमाजके पतनका मुख्य कारण मिथ्यादर्शन और उत्थानका मन साधन सम्यग्दर्शन ही हो सकता है। जब हम स्वयं इन रारामभावी उदार भावाम मुस्कृत होंग तो वही संस्कार स्तबाग हमारी सन्तानमें तथा विचारप्रचार द्वारा पाग पड़ौसके मागवमन्लानाम जायगे और इस नाम हम एमी नतन पीकोका निर्माण करने में समरांग जो अहिम समाज रचनाका आधार बनेगी। यही भारतभूमिकी विशेषता है जो इसने महावीर और बई जमघमणमन्नः प्राग श उदार आध्यात्मिनाका सन्देश जगत को दिया। आज विश्व भौतिकविषमताले पाहि पाटि नार रहा। जिन हाथमें बाह्य
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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