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तत्त्वार्थवृत्ति-प्रस्तावना
करनेकी योग्यता उसी में है। यह भाव प्रत्येक जर्मनयुवक उत्पन्न किया गया। उसका परिणाम द्वितीय महायुद्धके रूपमं मानवजातिको भोगना पड़ा और ऐसी ही कुसंस्कृतियोंके प्रचारसे तीसरे महायुद्धकी सामग्री इकट्ठी की जा रही है।
भारतवर्ष में सहस्रों वर्षसे जातिगत उच्चना नीचया, टुआछत, दासीदामप्रथा और स्त्रीको पददलित करनेकी संस्कृतिका प्रचार धर्मकार्यनलिने किया नमामी यसमिनिममरगती अहायात्राषिन किया, स्त्रियोंको मात्र भोगविलासकी सामग्री बनाकर उन्हें पशुम भी बदतर अवस्था में पहुँचा दिया। रामायण जैसे वर्भ जप "ढोल गवार शद्र पशु नारी में सब ताड़नके अधिकारी।" जैसी व्यवस्याएँ दी गयी हूँ और मानवजातिमं अनेक कल्पित भेदोंकी मुष्टि करके एक वर्गके गोषणको वर्गविशेषके शासन और विलासको प्रोत्माहन दिया, उसे पुण्यका फल बताया और उसके उच्छिष्ट कणसे अपनी जीविका चलाई। नारी और शूद्र पश के समान करार दिये गये और उन्हें बोलकी तरह ताडनाका पात्र बनाया। ग धर्माना को आज संस्कृतिके नामगे पुकारा जाता है। जिस पुरोहितवर्गकी धर्मसे आजीविका चलती है उनकी पूरी सेना इस मंस्कृतिकी प्रचारिका है। गुओको बगाने राजके लिए उत्पन्न किया है अनः ब्रह्माजीके नियमके अनुसार उन्हें यज्ञ बोको। गौडी रक्षाके बहाने मुगलमानोंको गालियां दी जानी न पर इन याजिकोंकी यज्ञयालामें गोमेध यन धर्म के नामपर बगबर होते थे । अतिथि सत्कारक लिए इन्हें गायकी बरियाका भर्ता बनानेम कोई मंकोच नहीं था। कारण स्पष्ट था-'ब्राह्मण ब्रह्माका मुख है, धर्मशास्त्रको रचना उसके हाथ में थी। अपनं वनके हित के लिए वे जो चाहे लिख सकते थे। उननं तो यहांतक लिखनेका साहस किया है कि-"ब्रह्माजोने गष्टिको उत्पन्न करके ब्राह्मणों को सौंप दी थी अर्थात् ब्राह्मण इरा सारी सृष्टिके ब्रह्माजीसे नियुवत' स्वामी है। ब्राह्मणोंकी असायधानीसे ही दूसरे लोग जगन के पदाकि स्वामी बने हुए हैं। यदि ब्राह्मण किसीवो मारकर भी उसकी मंगनि छीन लेता है तो वह अपनी ही वस्तू वापिस देता है। उसकी बह लट सत्कार्य है । वह उस ना उद्धार करता है।" इन ब्रह्ममखोंने ऐसी ही स्वार्थपोषण करनेवाली व्यवस्थाएं प्रचारित की, जिममें दूसरे लोग जाह्मणव. प्रभुत्वको न भूलें । गर्भसे लेकर मग्णनक सैकडों नखार इनको आजीविकाकलिए यामम हुए। मरणके बाद श्राद्ध, पापिन बाषिक आदि थाद्ध इनका जीविकाके आधार बने । प्राणिया नैगिक अधिकारोबो अपने आधीन बनाने के आधारपर संस्कृतिक नामसे प्रगर होता रहा है। 'ऐसी दशा में इस संस्कृतिका सम्यग्दर्शन हुए विना जगदमें शान्ति और व्यक्षिकी भक्ति में ही सवनी है? वर्गविशेषकी प्रभुताके लिए किया जानेवाल यह विषेला प्रचार ही मानवजातिब पतन और भारतकी पराधीनताका कारण हुआ है। आज भारतमें स्वातन्थ्योदय होनपर भी वही जहरीली धारा "संस्कृति रक्षा के नामपर युवकोंके कोमल मस्तिष्कों में प्रवाहित करनेका पूरा प्रयत्न वही वर्ग कर रहा है।
हिंदीकी रक्षाके पीछे वही भाव है। पुराने समयमं इस बगने संस्कृतका महत्ता दी थी और संस्कृतके उच्चारणको पुण्य और दूसरी जनभाषा-अपञ्चशके उच्चारणको पाप बताया था। नाटकाम रत्री और शूद्रोंसे अपभ्र या प्राकृत भाषाका बृलवाया जाना उसी भाषाधारित उच्चनीच भावका प्रतीक है। आज मम्मृतनिष्ठ हिन्दीका समर्थन करनेवालोंका वड़ा भाग जनभाषाकी अवहेलनाके भावसे ओतप्रोत है। अनः जबतक जगतके प्रत्येक द्रव्यकी अधिकारमीमाका वास्तविक यथार्थदर्शन न होगा तबतक यह धाँधली चलती ही रहेगी। धर्मरक्षा, नंस्कृतिरक्षा, गोरक्षा, हिन्दीरक्षा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, धर्म संघ आदि इसके आवरण है।
जैन संस्कृतिने आत्माके अधिकार और स्वरूपकी औरही सर्वप्रथम भ्यान दिलाया और कहा कि इसका सम्यग्दर्शन हुए बिना बन्धनमोक्ष नहीं हो सकता। उसकी स्पष्ट घोषणा(१) प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है उसका मात्र अपने विचार और अपनी क्रियाओंपर अधिकार है, वह
अपने ही गुण पर्यायका स्वामी है। अपने सुधार-बिगाड़का स्वयं जिम्मेदार है ।