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________________ कर्मसिद्धान्त का सम्यग्दर्शन मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५९ स्वरूपच्युत किया जा रहा है। वे इसके नशे में उरा मानवसभत्याधिकारको भूलकर अपने भाइयोंका खून बहाने में भी नहीं हिचकिचाते पशुओं सुधार और उनकी सुरक्षाकी बात तो सुनता ही कौन है ? अतः परलोक सुधार के लिए हमें परलोकके सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि हमारा पुरुषार्थ किस प्रकार उस परलोकको सुधार सकता है। परलोकमें स्वर्गके सुखादिके लाभरी इस जन्ममें कुछ वारित्र या तपश्चरणको करना तो लम्बा व्यापार हूँ । यदि ३२ देवियोके महासुखकी तीव्रतामनामे इस जन्म में एक बूढ़ी स्त्रीको छोड़कर ब्रह्मचर्यं धारण किया जाता है तो यह केवल प्रवचना है। न यह चारित्रका सम्यग्दर्शन है और न परलोकका यह तो कामनाका अनुचित पोषण है, कपालको पुतिका दुष्प्रयत्न है। अतः परलोक सम्बन्धी सम्यग्दर्शन साधके लिए अत्यावश्यक है। कर्मसिद्धान्तका सम्यग्दर्शन जैन सिद्धान्त सर्वासी ईश्वरसे जिस किसी तरह मुक्ति दिलाकर यह घोषणा की थी कि प्रत्येक जीव स्वतंत्र है वह स्वयं अपने भाग्यका विभाता है। अपने कर्मका कर्ता और उसके फलका भोक्ता है । परन्तु जिस पक्षी की चिरकालमे पिंजरे में परतन्त्र रहने के कारण सहज उड़ने की शक्ति कुटित हो गई है उसे पिंजड़ेंगे बाहर भी निकाल दीजिए तो वह पिजड़की ओर ही झपटता है। यह जीव अनादि परतन्त्र होने के कारण अपने मूल स्वातन्त्र्य आत्मसमानाधिकारको भूला हुआ है। उसे इसकी याद दिलाते हैं तो कभी वह भगवान्का नाम लेता है, तो कभी किसी देवी देवता का । और कुछ नहीं तो 'करम्मति टाली नाहि दले' का नारा किसीने छीन ही नहीं लिया। 'विधिका विधान' 'भवितव्यता अमिट है' आदि नारे बच्चे से बूढ़ेतक सभीकी जवानगर बड़े हुए हैं। ईश्वरकी गुलामी से हटे तो यह कर्मकी गुलामी गले आ पड़ी। मैंने अन्तके विवेचनमें कर्मका स्वरूप विस्तारसे लिखा है। हमारे विचार वचन व्यहार और शारीरिक क्रियाओंके संस्कार हमारी आत्मावर प्रतिक्षण पड़ते हैं और उन संस्कारोंको प्रबोध देनेवाले कन् आत्मा सम्बन्धका प्राप्त हो जाते हैं। आजका किया हुआ हमारा कर्म कल देव बन जाता है। पुराकृत कर्मको ही देव विधिभाग्य आदि कहते है जो कर्म हमने किया है, जिसे हमने उमे चाहें तो दूसरे क्षण ही जवाड़कर फेंक सकते हैं। हमारे हाथ की मत्ता है। उनकी उदीरणा - समय से पहिले उदय में लाकर द्वाड़ा देना मंत्रमण - साताको अमाता और असानाको खाता बना देना, उत्कर्षण स्थिति और फल देने की प्रक्तिम वृद्धि कर देना, I - स्थिति और फलदानशक्तिका हास कर देना, उपथम न आने देना या करना उन अयोपशम आदि विविध दशाएँ हमारे पुरुषार्थके अधीन है। अमुक कोई कर्म था इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह व्रज्ज्रलेप हो गया। बंधनेके बाद भी हमारे अच्छे बुरे विचार और प्रवृत्तियों उसको अवस्थामें सैकड़ों प्रकार परिवर्तन होते रहते हैं। हां, कुछ कर्म ऐसे जरूर बंध जाते हैं जिन्हें ना कठिन होता है उनका फल उसीप सो मं एक ही होता है। भोगना पड़ता है। पर ऐसा कर्म -- सीधी बात है - पुराना संस्कार और पुरानो बानना हमारे द्वारा ही उत्पन्न की गई थी। यदि आज हमारे आचार-व्यवहार में शुद्धि आती है तो पुराने संस्कार धीरे धीरे या एकही झटके में समाप्त हो ही जायेंगे की बात है यदि आजकी तैयारी अच्छी है तो प्राचीनको नष्ट किया जा सकता है, यदि कमजोरी है तो पुराने संस्कार अपना प्रभाव दिखाएँगे ही ऐसी स्थिति में "कर्मगति टाली नहीं ट" जैसे क्लीयविचारों का स्थान है? में विचार तो उस समय शान्ति देनेके लिए हैं जब पुरुषार्थ पारनेपर भी कोई प्रबल आपान आ जाये, उस ममय मान्त्वना और सांस के लिए इनका उपयोग है। कला था. पुरुषार्थ नहीं हो रहा अतः रुषार्थ कीजिए जो भावी बातें हैं उनके द्वारा कर्मको गतिको अटल बताना उचित नहीं है। एक शरीर भाग्य किया है, रामयानुसार वह जीर्ण शीर्ष
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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