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तत्वार्थवृत्ति प्रस्तावना
होगा ही । अब यह यह कहना कि 'कितना भी पुरुषार्थ कर लो मृत्यु से बच नहीं सकते और इसलिए कर्मगति अटल है वस्तुस्वरूपके अज्ञानका फल है। जब वह स्वापी पर्याय है तो आगे पीछे उसे जीर्ण शीर्ण होना ही पड़ेगा। इसमें पुरुषार्थ इतना ही है कि यदि युक्त आहार-विहार और संयमपूर्व चला जायगा तो जिन्दगी लम्बी और सुखपूर्वक चलेगी। यदि असदाचार और असंयम करोगे तो शरीर ब आदि रोगोंका घर होकर जल्दी क्षीण हो जायगा। इसमें कर्मकी क्या अटलना है? यदि कर्म यदि कर्म वस्तुनः अटल होता तो ज्ञानी जीन भिप्ति आदि साचनाओं द्वारा उसे क्षणभर काटकर सिद्ध नहीं होगे। पर इस आशय की पुरुषार्थप्रवण घोषणाएँ मूलतः शास्त्रोंमें मिलती ही हैं।
स्पष्ट बात है कि कर्म हमारी कियाजों और विचारोंके परिणाम है। प्रतिकूल विकारोंके द्वारा पूर्व संस्कार हटाए जा सकते हैं। कर्म की दशाओं में विविध परिवर्तन जीवके भावोंके अनुसार प्रतिक्षण होते ही रहते है। इसमें अपना क्या है। कमजोरके लिए कर्मही क्या, कुत्ता भी अटल है, पर सबके लिए कोई भी अटल नहीं है परन्तु कर्मको टालने के लिए शारीरिक इसकी आवश्यकता नहीं है इसके लिये चाहिए। चूंकि श्री "भाव आत्माकी ही कमजोरी हुए थे अतः उसकी निवृत्ति भी आत्मा ही स्वभावोंसे स्वसंशोधन से ही हो सकती है। यही आत्मबल यदि है तो फिर किसी कर्मकी ताकत नहीं जो तुम्हें प्रभावित कर सके।
श्री पंडित टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रशासक और भविनयके सम्बन्धमं स्पष्ट लिखा है रि"सम्धि और होनहार तो किछु वस्तु नाहीं जिस काल व कार्य बने सोई हाललब्ध और जो कार्य भया सो होनहार में अध्यात्मवे विनवता आया है कि प्रतिक्षण वस्तुमें अनेक परिणमनोक तरतमभूत योग्यताएँ रहती है। जैसे निमित्त और जैसी सामग्री जुट जायगी तदनुकूल योग्यताका परि पवन होकर उसका विकास हो जायगा। इसमें स्वपुरुषार्थ और स्वशक्तिको पहिचानको आवश्यकता है। जिस जैनधर्म ईश्वर जैसी मूल समर्थ और प्रचलित कल्पनाका छेद करके जीवस्था का स्वाबलम्बी उपदेश दिया उसमें कर्म अमिट और विधिविधान अटल कैसे हो सकता है ? जो हमारी गलती है उसे हम कभी भी सुधार सकते हैं। यह अवश्य है कि जितनी पुरानो भूलें और आदतें होंगी उन्हें हटानेके लिए उतना ही प्रबल पुरुषार्थ करना होगा। इसके लिए समय भी अपेक्षित हो सकता है। इसका अर्थ पुरुषार्थ में अविश्वास कदापि नहीं करना चाहिए।
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कर्मके सम्बन्धमें एक धम यह भी है कि कर्मके बिना पता भी नहीं हिलना संसारके अनेकों क अपने अपने अनुकूल प्रतिकूल संयोग होते रहते है उन उन पदार्थोंके सन्निधानमं जीवके माता और असाना का परिपाक होता है। जैसे ठंडी हवा अपने कारणोंसे चल रही है। स्वस्थ पुरुष की सानामें वह तो हो जाती है और निमोनियाँ रोगीके असानामें नोकमं बन जाती है। यह कहना कि 'हमारे साताके उदपने वकी चला दिया और रोगी के अमाता के उदपने भूल है ये तो नोकर्म है। इनकी समुत्पत्ति अपने कारणांम होती है और में उन कर्मकि उदयकी सामग्री बन जाते है। यह भी ठीक है कि उय क्षेत्र कालभावकी सामग्री के अनुसार कर्मके उदयमें उसकी फलदान गणिम तारतम्य हो जाता है। 'नामान्तराय उदय लाभको रोकता है और उसका क्षयोपशम लाभका कारण है इसका आन्तरिक अर्थ तो नहीं है कि जीवमें उसके यम से उस लाभको अनुभवनीयोगाता होती है। बाह्य पदार्थका मिलना आदि उस योग्यताजन्म पुरुषार्थ आदिके फल हैं।
यह भी निश्चित है कि आत्मा भौतिक जगत्को प्रभावित करता है। आत्मा के प्रभाव के साक्षी स्मरेजिम हिनामि आदि है । अतः आत्मपरिणामों के अनुसार भौतिक जगत्में भी परिवर्तन प्रायः हुआ करते हैं। परमायिकोंकी तरह जैवकर्म अमेरिकामें उत्पन्न होनेवाली हमारी भाग्य साबुन में कारण नहीं हो सकता। कर्म अपनी आसपास की सामग्रीको प्रभावित करता है। अमेरिकामं उत्पन्न साबुन अपने कारणोंसे उत्पन्न हुई है। हाँ, जिससमय वह हमारे संपर्क में आ जाती है तब हमारी