________________
कर्म सिद्धान्त का सम्यग्दर्शन
६१
सातामें नोकर्म हो जाती है। रास्तेमें पड़ा हुआ एक पत्थर सेकड़ों जीवोंके सैकड़ों प्रकारकं परिणमनमें तत्काल निमित्त बन जाता है, इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उस पत्थर को उत्पन्न करने में उसकी जीवोंके पुण्य-पापने कोई कार्य किया है। संसारके पदाओंकी उत्पत्ति अपने-अपने कारणोसे होती है । उत्पन्न पदार्थ एक दूसरेकी साता असाताके लिए कारण हो जाते हैं। एक ही पदार्थ समयभेदरो एकजोर या नानाजीवों के राग द्वेष और उपेक्षाका निमित्त होता रहता है। किनीका कालिक रूप मदा एकसा नहीं रहना। अत: कर्मका सम्पग्दर्शकागदशकों अपचायकालावसिागरमीयहोरानुकूल सत्पुरुषार्थम लगना चाहिए। वही पुरुषार्थ सत् है जो आत्मस्वरूप का साधक हो और आत्माधिकारको मर्यादाकी न लांघता हो।
संसारके अनन्त अचेलन पदार्थोबा परिणमन यद्यपि उनकी उपादान योग्यताके अनुसार हाता है पर उनका विकास पुरष निमित्तसे अत्यधिक प्रभावित होता है । प्रत्येक परमाणुमें पुद्गलकी वे सब शक्तियां हैं जो किसी भी एक पुद्गलाण इन्धमे हो सकती है अतः उपादान योग्यताको कमी तो किसीमें भी नहीं है। रह जाती है पर्याययोग्यता, सो पर्याययोग्यता परिणमनांके अनसार बदल जायगी। रेत पर्यायसे मामुली कुम्हार आदि निमित्तोंसे घटरूप परिणमनका विकास नहीं हो सकता जैसे कि मिट्टीका हो जाता है पर कांचकी भट्टी में या चीनी मिट्टीवे. बारवाने में उमीन पयका कांच बड़े रूपसे और चीनी मिट्टीके पढे रूपसे स्थिरतर सुन्दर परिषमन विकसित हो जाता है। अचनन पदायोंके परिणमन जैसे स्वल: बद्विशन्य होने के कारण मंयोगाधीन है में चनन पदार्थोक परिणमन मान संयोगाधीन ही नहीं है। जबतक यह आत्मा परतन्त्र है नबतक उसे कुछ योगाधीन पटिगमन करना भी पड़ते हों फिर भी वह उन संयोगोंसे मुक्त होकर उन परिण मनसे मुक्ति पा सकते है। चेतन अपनी स्वशक्तिकी नरतमताके अनसार अपने परिणमनोम वाधीन बन सकता है। उसमें कर्म अर्थात हमारे पुराने संस्कार सभी तक बाधक हो सकते है जबतक हम अपने प्रयोगों द्वारा उदार विजय नहीं पालने । उन पुराने संस्कार और विकारोंसे जो पगलव्य हमारी आत्माले बंधा था, उगकी अपनी स्वत: सामर्थ्य कुछ नहीं है उसे बल तो हमारे मंस्कार और हमारी वासनायामे ही प्राप्त होना है।
इसके सम्बन्धम सांस्यकारिकामं बहुन उफ्यवत दृष्टान्त बेश्या का दिया है। जिस प्रकार बश्या हमारी वासनाओंका बल पाकर ही हमें नानाप्रकासे नचाती है. हम उसके एकापर चलते हैं. उम है। अपना सर्वस्व मानते हैं, चमले है, चांटते है. जैमा वह कहती है वैसा करते हैं। पर जिस समय व वासनामिर्मक्त होकर म्वरूपदर्शी होते हैं उस समय वेश्या का बल समाप्त हो जाता है और वह हमारी गलाम होकर हमें शिाने की चेष्टा करती है, पूनः वासना जाग्रत करने का प्रयत्न करती है। यदि हम पक्के रहे तो वह स्वयं असफल प्रयत्न होकर हम छोड़ देनी है. और समझनी है कि अब इनपर रंग नहीं जन सकता। यही हालत कर्मपुद्गलको है। वह तो हमारी बारानाका बल पार ही सस्पन्द होता है। बंधा भी हमारी वासनाओंके कारण ही था और दंगा या नि:मार होगा तो हमारी वागतानिर्मक्त परिणतिसे ही । कर्मका बल हमारी वासना है और वह यदि निबल होगा तो हमारी बीतगनतामे ही । शास्त्राम मोहनीयको काँका राजा कहा है और ममकार तथा अहंकारको माहराजका मन्त्री । मोह अर्थात् मिप्यादर्शन, राग और द्वेष। बास्य पदार्थों में ये मेरं हैं' हम ममकारसे तथा 'म ज्ञानी हैं रूपवान' इत्यादि अहंकारसे राग द्वेषकी मुष्टि होती है और मोहाज को मेना तैयार हो जाती है। जिस समय इस मोहराजका पतन हो जाता है उस समय मेना अपने आप निवार्य होकर तितर बितर हो जाती है। साथ रह गया इन कुभावोंके माध बंधनेवाला पुदगल । मो वह तो विचारा पर द्रव्य है। वह यदि आत्माम पहा भी रहा तो भी हानिकारक नहीं। सिभिलाएर भी सिद्धाके पास अनन्न पद्गलाणु पड़े हाग पर वे उनमें रागादि उत्पन्न नहीं कर सकते क्योंकि उनम भीतरसे वे कुभाव नहीं है। अत: मोहनीयकं नट होते ही, बोतगगता आते ही वह बंधा हुआ द्रव्यभी झड़ जायगा, या न भी सड़ा वहाँ ही बना रहा तो भी उसमें जो कर्मगता आया है वह समाप्त हो जायगा, वह मात्र पुद्गलपिड रह जायगा। कर्मपना