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तत्त्वार्थवत्ति-प्रस्तावना तो हमारी ही वारानामे उसमें आया था मो समाप्त हो जायगा। "करम विचारे कौन, भूलं मेरी अधिकाई । अग्नि सहे घनघात लोहकी संगति पाई ।" यह स्तुति हुम रोज पढ़ते हैं। इसमें कर्मशास्त्रका पारा तत्व भरा हुआ है। तात्पर्य यह कि-कर्म हमारी लगाई हुई खेती है उसे हमीं सींचते हैं। चाहें तो उमे निर्जीव कर दें चाहं तो सजीव। पर पृगनी परतन्त्रताके कारण आत्मा इतना निर्बल हो गया है कि उसकी अपनी कोई आवाज ही नहीं रह गई है। आत्मामें जितना सम्यग्दर्शन और स्वरूप-स्थितिका बल आयगा उतना ही वह सबल होगा और पुरानी बासना समाप्त होती जाँचगी। इस तरह कर्मके यथार्थ रूपको समझ कर हम अपनी शक्तिको पहिचान करनी चाहिए और उन सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियोंका संवर्धन तथा गोषण करना चाहिए जिससे पुरानी कुवासनाएँ नष्ट होकर वीतराग चिन्मय स्वरूपकी पुनः प्रनिष्ठा हो।
शासका सम्यग्दर्शनवैदिक परम्परा और जैनपरम्पगमें महत्वका मौलिक भेद यह है कि वैदिक परम्परा धर्म-अधर्मव्यवस्थाके लिए वेदोंको प्रमाण माननी है जब कि जैन परम्पराने वेद मा किसी शास्थकी केवल शास्त्र होने केही कारण प्रमाणता स्वीकार नहीं की है । धर्म अधर्मकी व्यवस्थाके लिए
परपके तत्वज्ञानमालक अनुभवको प्रमाण माना है । वैदिक परापरामं स्पष्ट घोषणा है बि.---'धर्म चोवनक मार्गदर्शक :- अपमझ लीसिविनिम्यवस्थामनीमाटराजमाण वेद है । इसीलिए वेदपक्षवादी मीमांसकने पूरुषकी
सर्वजनास ही इनकार कर दिया है। यह धादि अतीन्द्रिय पदार्थोके सिवाय अन्य पदार्थोका यथासंभव प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे ज्ञान मानता है, पर धर्मका ज्ञान बंद के ही द्वारा मानता है। जब कि जन परम्परा प्रारम्भरी ही वीतरागी पुरुष के नवज्ञानमलक वचनाको प्रमादिम प्रमाण मानती आई है। इसीलिए स परम्प गर्म पुरुपकी सर्वज्ञना स्वीकृत हुई है। इस विवेचन इसमा स्पष्ट है कि कोई भी शास्त्र म मास्न होने के कारण ही जैन परम्पको स्वीकार्य नहीं हो सकता जब तक कि उसके वीतरागययाधंबंदिषणीतल का निस्त्राय न हो जाय । साक्षात सर्वजनस्वके निश्चर या मर्वजप्रणीत मूल-परम्परागतत्व के निश्चय के बिना कोई भी शास्त्र धर्मके विषय में प्रमाणकोटिमें उपस्थित नहीं किया जा सकता।
बदकी गलामीको जैन नत्वशानियोंने हमारे ऊपरमे उतारकर हमें पुरुषानुभवमूलक पौरुषेय वचनोंको परीक्षापूर्वक माननेकी राय दी है.। पर दास्त्रोंके नामपर अनेक मूल परम्पराम अनिर्दिष्ट विषयांके मंग्राहक भी शास्त्र तैयार हो गये हैं । अनः हम यह विवेक तो करना ही होगा कि इस शास्त्रके द्वाग प्रतिपाद्य विषय मन अहिंसापरम्पराम मेल खाते हैं या नहीं ? अथवा तत्कालीन प्राह्मणधर्मके प्रभावन प्रभावित हुए है। श्री पंडित जगलकिशोरजी मुरुताग्ने ग्रन्थपरीक्षाके तीन भागोंमे अनेक ऐसे हो न्योकी आलोचना की है जो उमास्वामी और पूज्यपाद जैसे युगनिर्माता आचायोंके मामपर बनाए गा। जिम जन्मना जातिव्यवस्थाका जन संस्कृतिन अस्वीकार किया था कुछ पुराणग्रन्थोंम वही अनेक मकान और परिकरोंके साथ विराजमान है। जैनमन्वृति बाध आडम्बरीसे शून्य अध्यात्म-अहिंसक संस्कृति है । उसमें प्राणिमाका अधिकार है। ब्राह्मणधर्ममें धर्मका उत्त्चाधिकारी ब्राह्मण है जब कि जैन मंस्कृतिन धर्मका प्रत्यक द्वार मानवमात्रकेलिए उन्मुक्त रखा है। किमी भी जातिका किमी भी वर्णका मानव धर्म के मन नर तक बिना किसी रुकावटके पहुंच सकता है। पर कालक्रममे यह संस्कृति ब्राह्मणधर्मसे पगमन हो गई है. इसमें भी वर्णव्यवस्था और जानिगत उच्चनीच भाव आदि शामिल हो गये हैं। नर्पण यात आध्यायप्रथा आदि इसम भी प्रचलित हुए। यज्ञोपवीतादिरांस्वारोंन जोर पकडा है। दक्षिण में ना जैन और ब्राह्मणमं फर्क लग्ना भी कठिन हो गया है। तदनुसार ही अनेक ग्रन्योंकी रचनाएँ हुई और मनी भावके नामपर प्रचलित हैं। पिवर्गाचार और चर्चासागर जैसे अन्य भी शास्त्रके खातेमें खतयारा हा है। दामन देवताओंकी पूजा प्रतिष्ठा दायभाग आदिक शास्त्र भी बने है। कहनका तात्पर्य