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________________ ४४१-१२] चतुर्थ अध्याय ४५ सनत्कुमार और माहेन्द्रस्वर्ग के देव और देवियाँ परस्परमें स्पर्शमात्रसे; ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ट स्वर्गके देव और देवियों एक दूसरेके रूपको देखने से शुक्र, महाशुक्र, शतार और 'सहस्रार स्वर्ग के देव और देवियाँ परस्पर शब्दश्रवणसे और आनत, प्राणत, भारत और अच्युप्त स्वर्गके देव और देवियों मनमें एक दूसरेके स्मरणमात्रसे अधिक सुरखका अनुभव करती हैं। परेप्रवीचाराः ।।६ ॥ नव प्रैवेयक, नव अनुदिश और पश्चोत्तर विमानवासी देव कामसेवनसे रहित होते हैं। इन देवोको कामसेवनकी इच्छा ही नहीं होती है। उनके तो सदा हर्ष और आनन्द रूप सुखका अनुभव रहता है । भवनवासाभद-आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ।। १० ॥ __ भवनवासी देवोंके असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिकुमार-ये वश भेद हैं। भवनों में रहने के कारण इन देवोंको भवनवासी कहते हैं। जो परस्परमें दूसरोंको लड़ाकर उनके प्राणोंको लेते हैं उनको असुरकुमार कहते हैं । ये तृतीय नरक तकके नारकियोंको दुःख पहुँचाते हैं । पर्वत या वृक्षोंपर रहनेवाले देव नागकुमार कहलाते हैं। जो विद्युन्के समान चमकते हैं वे विद्युत्कुमार हैं। जिनके पक्ष ( पंख ) शोभित होते हैं. वे सुपर्णकुमार हैं। जो पाताल लोकसे क्रीड़ा करनेके लिये ऊपर आते हैं वे अग्निकुमार कहलाते हैं। तीर्थकरके विहारमार्गको शुद्ध करनेवाले वातकुमार हैं। शब्द करनेवाले देवोंको स्तनितकुमार कहते हैं। समुद्रोंमें क्रीड़ा करनेवाले उदधिकुमार । और द्वीपोंमें क्रीड़ा करनेवाले द्वीपकुमार कहलाते हैं। दिशाओं में क्रीड़ा करनेवालोंको दिक्युमार कहते हैं । असुरकुमारों के प्रथम नरकके एकबहुल भागमें और शेप भवनबासी देवोंके खरबहुल भागमें भवन हैं। व्यन्तरदेवोंके भेद-- व्यन्तराः किन्नर किम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ व्यन्तर देवों के किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच-ये आठ भेद होते हैं। नाना देशों में निवास करने के कारण इनको व्यन्तर कहते हैं। जम्बूद्वीपके असंख्यात द्वीप-समुद्रको छोड़कर प्रथम नरक के खर भागमें राक्षसोंको छोड़कर अन्य सात प्रकारके व्यन्तर रहते है और पङ्कभागमें राक्षस रहते हैं। ___ ज्योतिषी देवोंके भेदज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥ १२ ॥ ज्योतिपी देवोंके सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा ये पाँच भेद है। ज्योति (प्रकाश) युक्त होनेके कारण इनको ज्योतिषी कहते हैं। इस पृथ्वी से सात सी नदचे योजनकी ऊँचाई पर ताराओं के विमान है । ताराओंसे
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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