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________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज नत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [४१.८ होते हैं उनको आरक्षक कहते हैं । अर्थ (धन) सम्बन्धी कार्य में नियुक्त अर्थ चर कहलाते हैं। पत्तन, नगर आदि की रक्षा के लिये नियुक्त ( कोट्टपाल ) कहलाते हैं। __ अनीक--जो इस्ति, अश्त्र, रथ, पदाति, वृषभ,गन्धर्व और नर्तकी इन सात प्रकारकी सेना में रहते हैं वे अनीक है।। प्रकीर्णक-नगरवासियोंके समान जो इधर उधर फैले हुये हो उनको प्रकीर्णक कहते हैं। आभियान्य-जो नौकरका काम करते हैं वे आभियोग्य हैं। किल्विपिका-किल्यिप पापको कहते हैं । जो सघारीमें नियुक्त हो तथा नाई आदिको तरह नीचकर्म करनेवाल होते हैं उनको किल्बिपक कहते हैं।। प्रायस्त्रिंशलोकपालवज्या व्यन्तरज्योतिषकाः ॥ ५ ॥ ग्रन्तर और ज्योतिषी देवों में प्रायशि और लोकपाल नहीं होते हैं । इन्द्रोंकी व्यवस्था-- पूर्वयोन्द्राः ॥६॥ भवनवासी और व्यन्तर दवों में प्रत्येक भेदसम्बन्धी दो दो इन्द्र होते हैं। भवनवासी देवों में असुरकुमारोंक चमर और वैरोचन, नागकुमारोंके धरण और भूतानन्द, विद्युत्तुमारोंके हरिसिंह और हरिकान्त, सुवर्णकुमारोंके वेणुदेव और वेणुताली, अग्निकुमारों के अग्निशिख और अग्निमाणव,बानकुमारोंके वेलम्ब और प्रभरज न,स्तनितकुमारोंके सुघोष और महापाप, उदधिकुमारोंके जलकान्त और जलप्रभ, दीपकुमारों के पूर्ण और अवशिष्ट, दिक्कुमारों के अमितगान और अमितवाहन, नाम के इन्द्र होते हैं। दान्तर दत्रों में किन्नरोंके किन्नर और किम्पुरूप, किम्पुरुषोंके सत्पुरुष और महापुरुष, महारगोंके अतिकाय और महाकाय, गन्धों के गीतरति और गीतयश. यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, भूतोके प्रतिरूप और अप्रतिरूप और पिशाचोंके काल और महाकार नामक इन्द्र होते हैं। देवोंक भोगोंका वर्णन-- कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥ रेशान स्वर्गपर्यन्त के दब अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और प्रथम तथा द्वितीय स्वर्गके देव मनुष्य और तिर्यक चोंके समान शरीरसे काम सेवन करते हैं। मर्यादा और अभिविधि, क्रियायोग और ईपन अर्थ में "आ" उपसर्ग आता है। वथा वाक्य और स्मरण अर्थ में 'श्रा' उपसर्ग आता है. 'आ' उपसर्ग की स्वरपरे रहते सन्धि नहीं होती। इस सूत्र में श्रा और ए ( आ + ए) इन दोनों की सन्धि हो सकती थी लेकिन पन्नेहको दूर करनेके लिये आचार्य ने सन्धि नहीं की है। यहां आ अभिविधिके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अभिविधिमें उस वस्तुका भी ग्रहण होता है जिसका निर्देश श्राके बाद किया जाता है । जैसे इस म्यूममें ऐशान स्वर्गका भी ग्रहण है। शेषाः स्पर्शरूपशब्द मनःप्रवीचाराः ।। शेप देव ( तृतीय स्वर्गग्मे सोलहवें स्वगतक) देवियों के स्पर्शसे, रूप देखने से, शब्द सुननेसे और मनमें स्मरण मात्रसे काम सुखका अनुभव करते हैं।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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