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________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [७१०-११ अब्रह्मचारी पुरुप मदोन्मत्त होता हुआ कामके वश होकर वध बन्धन आदि दुःखों को प्राप्त करता है, मोह या अज्ञानके कारण कार्य और अकार्यको नहीं समझता है और स्त्रीलम्पट होनेसे दान, पूजन, उपवास आदि कुछ भो पुण्य कर्म नहीं करता है । परस्त्रीमें अनुरक्त पुरुप इस लोक में लिजछेदन, वध, अन्धन, सर्वस्वहरण आदि दुःखांको प्राप्त करता है और मरकर नरकादि गनियोंक दुःखोंको भोगता है। लोगों द्वारा निन्दित भी होता है अतः कुशीलसे विरक्त होना ही शुभ है । परिग्रहवाला पुरुष परिग्रहको चाहनेवाले घोर आदिके द्वारा अभिभूत होता है जैसे 'मांसपिण्डको लिंग्रे हुए एक पक्षी अन्य पक्षियों के द्वारा । वह परिग्रहके उपार्जन, रक्षण और नायक रा होनेवाले बहुतसे दायाँको प्राप्त करता है। इन्धनके द्वारा बहिकी तरह धनसे उसकी कभी तृप्ति नहीं होती। लोभके कारण वह कार्य और अकार्यको नहीं समझता । पात्रों को देखकर किवाड़ बन्द कर लेता है, एक कौड़ी भी उन्हें नहीं देना चाहता। पात्रोंको मार्गदर्शक कॅवलाचा हातबहामारकर पदकाई गतियोंके घोर दुखांको प्राप्त करता है और लोगों द्वारा निन्दित भी होता है। इसलिये परिग्रहके त्याग करने में ही कल्याण है। इस प्रकार हिंसादि पाँच पापोंके विषयमें विचार करना चाहिये। दुःखमेव वा ॥ १०॥ अथवा ऐसा विचार करना चाहिये कि हिंसादिक दुःखरूप ही हैं। हिंसादि पाँच गपोंको दुःखका कारण होनेसे दुःवरूप कहा गया है जैसे "अन्नं च प्राणाः"यहाँ अन्नको प्राणका कारण होनेसे प्राण कहा गया है। अथवा दुःखका कारण असातावेदनीय है। असातावेदनीयका कारण हिमादि हैं। अतः दुखके कारणका कारण होनेसे हिंसादिकको दुःखस्वरूप कहा गया है, जैसे "धनं वै प्राणाः” यहाँ प्राणके कारण भूत अन्नका कारण होनेसे धनको प्राण कहा गया है। यद्यपि विषयभोर्गोंसे सुखका भी अनुभव होता है लेकिन बास्तवमें यह सुख सुख नहीं है, केवल वेदनाका प्रतिकार है जैसे खाजको खुजलानेसे थोड़े समयके लिये सुखका अनुभव होता है। अन्य भावनाएँ-- मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु ॥ ११ ।। प्राणीमात्र, गुणीजन,क्लिश्यमान और अविनग्री जीवोंमें क्रमसे मंत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यम्ध्य भावनाक! विचार करे। संसारके समस्त प्राणियोंमें मन वचन काय कृत कारित और अनुमोदनासे दुःख उत्पन्न न होनेका भाव रखना मैत्री भावना है । जान तप संयम आदि गुणोंसे विशिष्ट पुरुषोंको देखकर मुखप्रसन्नता आदिके द्वारा अन्तर्भक्तिको प्रकट करना प्रमोद भावना है। असाताचेदनीय कर्मके उदयसे दु:खित जीवों को देखकर करुणामय भावोंका होना कारुण्य भावना है । जिनधर्मसे पराङ्मुख मिथ्यादृष्टि आदि अत्रिनीत प्राणियों में उदासीन रहना माध्यध्य भावना है। इन भायनाओंके भावनेसे अहिंसादि व्रत न्यून होने पर भी परिपूर्ण हो जाते है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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