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________________ ७॥१२-१३] सासवाँ अध्याय संसार और शरीरके स्वभावका विचार--- जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥ संवेग और वैराग्यके लिये संसार और शरीरके स्वभावका विचार करना चाहिये। संसारसे भीरता अथवा धर्मानुरागको संवेग कहते हैं । शरीर, भोगादिसे विरत होना वैराग्य है। सूत्र में आया हुआ 'या' शब्द यह सूचित करता है, कि संसार और शरीरके स्वरूपचिन्तनसे अहिंसादि व्रतों में भी स्थिरता होती है। संसारके स्वरूपका विचार-लोकके तीन भेद हैं--उर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । अधोलोक वेत्रासनके आकार है, मध्यलोक अल्लरी ( झालर) और ऊर्ध्वलोक मृदहके आकार है। तीनों लोक अनादिनिधन हैं। इस संसारमें जीव अनादि कालसे चौरासी लाख योनियों में शारीरिक मानसिक आगन्तुक आदि नाना प्रकारके दुःखोको भोगते हुए भ्रमण कर रहे हैं । इस संसारभे धन यौवन आदि कुछ भी शाश्वत नझीदर्शायु-जमशाद बासनावावेसागौर ओझासाचे विद्युत् इन्द्रधनुष आदिके समान अस्थिर है। इस संसार में इन्द्र धरणेन्द्र आदि कोई भी विपश्चिमें जीवकी रक्षा नहीं कर सकते । इस प्रकार संसार के स्वरूपका विचार करना चाहिये। कायके स्वभाव का विचार · शरीर अनित्य है, दुःखका हेतु है, निःसार है, अशुचि है, बीभत्स है, दुर्गन्धयुक्त है, मल मूत्रमय है, सन्तापका कारण है और पापोंकी उत्पत्तिका स्थान है। इस प्रकार कायके स्वरूपका विचार करना चाहिये। हिंसाका लक्षणप्रमत्तयोगात् प्राणक्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ प्रमत्त व्यक्ति के व्यापारसे दश प्रकार के प्राणों का वियोग करना अथवा वियोग करनेका विचार करना हिंसा है। कषायसहित प्राणी को प्रमत्त कहते हैं । अथवा विना विचारे जो इन्द्रियों की प्रवृत्ति करता है वह प्रमत्त है। अथवा तीन कपायोदयके कारण अहिंसामें जो कपटपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह प्रमत्त है। अथवा चार बिकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और प्रणय इन पन्द्रह प्रमादोंसे जो युक्त हो वह प्रमत्त है। प्रमत्त व्यक्तिके मन, वचन और कायके व्यापारको प्रमत्तयोग कहते हैं। और प्रमत्तयोगसे प्राणों का वियोग करना हिंसा है। प्रमत्तयोगकै अभावमें प्राणव्यपरोपण होनेपर भी हिंसाका दोष नहीं लगता है। प्रवचनसारमें कहा भी है कि-"ईर्यासमितिपूर्वक गमन करनेवाले मुनिफे परके नीचे कोई सूक्ष्म जीव आकर दब जाय या मर जाय तो उस मुनिको उस जीवके मरने आदिसे सूक्ष्म भी कर्मबन्ध नहीं होता है। जिस प्रकार मूछ का नाम परिग्रह है उसी प्रकार प्रमत्तयोगका नाम हिंसा है।" और भी कहा है कि-"जीव चाहे मरे या न मरे लेकिन अयनाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेको हिंसाका दोष अवश्य लगता है और प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेको हिंसामात्रसे पापका धन्ध नहीं होता है।" अपने परिणामों के कारण प्राणियोंका घात नहीं करनेवाले पाणी भी पापका बन्ध करते हैं जैसे धीयर मछली नहीं मारते समय भी पापका बन्ध करता है क्योंकि उसके भाष सदा ही मछली मारने के रहते हैं और प्राणियोंका घात करनेवाले प्राणी भी पापका बन्ध नहीं करते जैसे कृषकको हल चलाते समय भी पापका बन्ध नहीं होता है क्योंकि उसके
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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