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तस्वार्थवृति हिन्दी-सार
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परिणाम हिंसा करने नहीं है। प्रमादयुक्त व्यक्ति पहिले स्वयं अपनी आत्मा का बात करता दूसरे प्राणियों का वध हो चाहे न हो । अतः प्रमत्तयांग से प्राणों के वियोग करने को अथवा केवल प्रमत्त योगको हिंसा करते हैं। प्रमत्त योग के बिना केवल प्राणव्यपरोपण हिंसा नहीं है ।
असत्यका लक्षण -
असदभिधानमनृतम् ॥ १४ ॥
प्रमाद के योग से असत् (अप्रशस्त ) अर्थको कहना अमृत या असत्य है । अर्थात् प्राणियों को दुःखदायक विद्यमान अथवा अविद्यमान अर्थका वचन असत्य है। जिस प्रकार श्री हिंसा में प्रसिद्ध हैं उसी तरह वसु राजा झूठ में । कर्णकर्कश, हृदयनिष्ठुर, मनमें पीड़ा करनेवाले क्रलिक्खामियन आदिको करानेवाले, रकारी, कलह आदि करानेवाले, वास करनेवाले गुरु आदिकी अवज्ञा करनेवाले आदि वचन भी असत्य हैं। ॐठ बोलने की इच्छा और झूठ बोलनेके उपाय सोचना भी प्रमत्त योग के कारण असत्य हैं। प्रमत्तयोग के अभाव में असत्य वचन भी कर्मबन्धके कारण नहीं होते हैं ।
चोरीका लक्षण -
अदत्तादानं स्यम् ॥ १५ ॥
प्रमत्तयोग से बिना दी हुई किसी बस्तुको ग्रहण करना चोरी है । अर्थात् जिस वस्तु पर सब लोगोंका अधिकार नहीं है उस वस्तुको ग्रहण करना, ग्रहण करने की इच्छा करना अथवा ग्रहण करने का उपाय सोचना चोरी है।
प्रश्न -- यदि बिना दी हुई वस्तुके ग्रहण करनेका नाम चोरी है तो कर्म और नोकर्मका ग्रहण भी चोरी कहलायेगा क्योंकि कर्म और नोकर्म भी किसीके द्वारा दिए नहीं जाते ।
उत्तर - जिस वस्तुका देना और लेना संभव हो उसी वस्तुके ग्रहण करनेमें चोरीका व्यवहार होता है । सूत्रमें आए हुए 'अदत्त' शब्दका यही तात्पर्य है। यदि दाताका सा होता ग्राहक का अस्तित्व भी पाया जाता है। लेकिन कर्म और नोकर्म वर्गका कोई स्वामी न होने से उनके ग्रहण करने में अदत्तादानका प्रश्न ही नहीं होता है । अतः कर्म और नोकर्मका ग्रहण करना चोरी नहीं है ।
प्रश्न – प्राम, नगर आदि में भ्रमण करने के समय मुनि रध्याद्वार ( गलीका द्वार ) आदिमें प्रवेश करते हैं और रध्या आदि स्वामी सहित हैं अतः बिना आज्ञा के प्रवेश करने के कारण मुनियों को चोरीका दोष लगना चाहिये ।
उत्तर - ग्राम, नगर या दिमें और रथ्याद्वार आदिमें प्रवेश करनेसे मुनियों का चोरीका दोप नहीं लगता है क्योंकि सर्व साधारण के लिये यहाँ प्रवेश करनेकी स्वतन्त्रता है। मुनियों के लिये यह भी विधान है कि बन्द द्वार आदिमें प्रवेश न करें। अनः खुले हुए द्वार आदिमें प्रवेश करने से कोई दोष नहीं लगता है। अथवा प्रमत्तयोग से अदत्तादानका नाम चोरी है. और मुनियोंको प्रमत्तयोग के बिना रथ्याद्वार आदिमें प्रवेश करनेपर चोरीका दोष नहीं लग सकता है ।