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सातवा अध्याय
३ कुशीलका लक्षण
मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ मथुनको अब्रा अर्थात् कुशील कहते हैं। चारित्रमोहनीय कर्मक उदयसे रामपरिणाम सहित स्त्री और पुरुषको परस्पर स्पर्श करने की इच्छाका होना या स्पर्श करने के उपायका सोचना मैथुन है। रागपरिणाम के अभाबमें स्पर्श करने मात्रका नाम कुशील नहीं है । लोक और शास्त्र में भी यही माना गया है कि रामपरिणाम के कारण स्त्री और पुरुपकी जा चेष्टा है. वही मैथुन है । अतः प्रमत्तयोगसे स्त्री और पुरुषमें अथवा पुरूप और पुरूमें रतिसुखके लिये जो चेष्टा है वह मैथुन है।
जिसकी रक्षा करने पर अहिंसा आदि गुणोंकी वृद्धि है। वह ब्रहा है और ब्रह्माका अभाव अब्रह्म है। मंथनको अनय इसलिये कहा है कि मंथनमें अहिंसादि गणों की रक्षा नहीं होती है। मथुन करनेवाला जौच हिंसा करता है। मथुन करनेसे योनि स्थित करोड़ों जीवोंका घात होता है । मैथुनके लिये झूठ भी बोलना पड़ता है, अदनादान और परिग्रहका भी ग्रहण करना पड़ता है । अप्तः मथुनमें सब पाप अन्तहिंन हैं।
परिग्रहका लक्षण
मूर्छा परिग्रहः ॥ १७ ॥ मार्गदर्शकडोकावरह हिलहिणायामसभाणामुक्ता आदि चतन और अचेतन रूप बाय परिग्रह और राग द्वेष आदि अन्तरङ्ग परिग्रहके "उपार्जन रक्षण और वृद्धि आदि में मनकी अभिलापा या ममत्वका नाम मूच्छी है। चात पित्त श्लेष्म आदिसे उत्पन्न हाने बाली अचेतन स्वभावरूप भू.का यहाँ ग्रहण नहीं किया गया है।
प्रश्न-यदि मनकी अभिलापाका नाम ही परिग्रह है तो बाह्य पदार्थ परिग्रह नहीं होंगे।
उत्तर-मनकी अभिलाषाको प्रधान होने के कारण अन्तरङ्ग परिग्रहको ही मुख्य रूप से परिग्रह कहा गया है । बाल पदार्थ भी मूछ के कारण होनेसे परिग्रह ही हैं। ममत्व या मू का नाम परिग्रह होनेस आहार भय आदि संज्ञायुक्त पुरुष भी परिग्रहसहित है. क्योंकि संज्ञाओंमें ममत्वबुद्धि रहती है।
प्रश्न – सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र आदि भी परिग्रह है या नहीं ?
उत्तर-जिसके प्रमत्तयोग होता है वही परिग्रहसहित होता है और जिसके प्रमत्तयोग नहीं है वह अपरिग्रही है। सम्यम्झान दर्शन चारित्र आदिसे युक्त पुरूप प्रमादरहित और निर्माह होता है, उसके मूर्छा भी नहीं होती है अतः यह परिग्रहरहित ही दूसरी बात यह है कि ज्ञान दर्शन आदि अात्माके स्वभाव होनेसे अहेय है और राग. पादि अनात्मस्वभाव होनस हेय है। अतः रागपादि ही परिग्रह हैं न कि ज्ञान दशनादि एसा कहा भी है कि जा हेय हो वही परिणाम है ।
परिग्रहवाला पुरुष हिंसा आदि पांचों लापोंमें प्रवृत्त होता है और नरकादिगांतयोड दाखोंको भोगता है।
अन्तर परिग्रहके चौदह भेद हैं.-मिथ्यात्य, दास्य, रति, अति. जाक, भय, जुगुप्सा क्रोध, मान, माया, लाभ, राग और टेप । बाह्य परिभह पश भेद है --क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, सवारी, शमनासन, कुष्य और भाण्ड ।