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________________ ९] सातवाँ अध्याय शून्यागारों में और त्यक्त स्थानों में रहनेसे परिग्रह आदिमें निस्पृहता होती है। सर्मियों के साथ विसंबाद न करनेसे जिनवचनमें व्याघात नहीं होता है। इससे अचौर्यव्रत में स्थिरता आती है। इसी प्रकार परोपरोधाकरण और भैक्षशुद्धिसे भी इस व्रतमें दृढ़ता आती है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ब्रह्मचर्य व्रतकी भावनाएँस्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीर संस्कारत्यागाः पञ्च ॥ ७ ॥ स्त्रीरागकथाश्रयणत्याग, तन्मनोहराङ्गानिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृध्ये टरसत्याग और स्वशरीरसंस्कारत्याग ये ब्रह्मचर्यत्रतको पाँच भावनाएं हैं। स्त्रियों में राग उत्पन्न करनेवाली कथाओं के सुननेका त्याग स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग है। स्त्रियों के मनोहर अङ्गोंको देखनेका त्याग तन्मनाहराङ्गनिरीक्षणत्याग है । पूर्वकालमें भोगे हुप चिपयोंको स्मरण नहीं करना पूर्वरतानुस्मरणत्याग है। कामवर्धक, वाजीकर और मन तथा रसनाको अच्छे लगनेवाले रसोंको नहीं खाना वृष्येष्टरसत्याग है । अपने शरीरका किमी प्रकारका संस्कार नहीं करना स्वशरीरसंस्कारत्याग है। परिग्रहत्यागवतकी भावनाएँमनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ।। ८ ।। स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट विषयों में राग नहीं करना और अनिष्ट विषयों में देष नहीं करना ये परिग्रहत्यागवतकी पांच भावनाएँ हैं। हिंसादि पापोंकी भावना हिमादिविहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ।। ९ ॥ हिंसादि पापोंके करनेसे इस लोक और परलोकमें अपाय और अवयदर्शन होता है। अभ्युदय और निःश्रेयसको देनेवाली क्रियाओं के नाशको अथवा सात भयोंको अपाय कहते है. और निन्दाका नाम अवश्य है। हिंसा करनेवाला व्यक्ति लोगों द्वारा सदा तिरस्कृत होता है और लोगोंसे बैर भी उसका रहता है । इस लोकमें वध, बन्धन आदि दुःखोंको प्राप्त करता है और मर कर नरकादि गतियों के दुःखौंको भोगता है। इसलिये हिंसाका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। __ असत्य बोलनेवाले पुरुपका कोई निश्वास नहीं करता है। ऐसे पुरुषकी जिला कान नासिका आदि छेदी जाती है। लोग उससे बैर रखते हैं और निन्दा करते हैं। इसलिये असत्य वचनका त्याग करना ही अच्छा है। चोरी करनेवाला पुरुष चाण्डालोंसे भी तिरस्कृत होता है और इस लोकमें पिटना वध. बन्धन हाथ पैर कान नाक जीभ आदिका छेदन, सर्वस्व हरण, गवेपर बैठाना आदि दण्डों को प्राप्त करता है। सब लोग उसकी निन्दा करते हैं और वह मरकर नरकादि गतियों के दुःखको प्राप्त करता है । अतः चोरी करना श्रेयस्कर नहीं है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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