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________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [२१४-५ क्षायिक भावके भेदशानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४ ॥ ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य और च. शब्दसे सम्यक्त्व और चारित्र ये नव क्षायिक भाव है। केवलज्ञानावरणके भयमे केवलज्ञान क्षायिक है। केवलदर्शनावरणके भयसे केवलदर्शन क्षायिक होना है। दानाम्तर्गदर्षकक्षयरनेसनल प्राणियविधिअनग्रह काम महाराजान अभयदान होता है । लाभान्तरायके चयमे अनन्तलाभ होता है । इसीसे केवली भगवान की शरीरस्थिति के लिए परम शभ सक्ष्म अनन्त परमाणु प्रतिसमय आते हैं। इसलिए कयला हार न करने परभी उनके शरीरकी स्थिति बराबर बनी रहती है। भोगान्तरायके क्षयसे अनन्तभोग होता है । जिससे गन्धोदकवृष्टि पुष्पवृष्टि आदि होती हैं। उपभोगान्तरायके क्षयसे अनन्त उपभोग होता है, इसग्ने छत्र चमर आदि विभूतियाँ होती है। वीर्यान्तरायके क्षयसे अनन्त वार्य होता है। केवली क्षायिकवीर्यके कारण केवलज्ञान और केवलदर्शनके द्वारा सर्व द्रव्यों और उनकी पर्यायों को जानने और देखने के लिये समर्थ होते हैं। चार अनन्तानुयन्धी और तीन दर्शनमोहनीय इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है। सोलह कषाय और नव नोकषायों के क्षयसे क्षायिकचारित्र होता है। क्षायिक दान, भोग, उपभोगादिका प्रत्यक्ष कार्य शरीर नाम और तीर्थक्कर नामकर्मके उदयसे होता है । चूंकि सिद्धोंक उक्त कर्मोंका उदय नहीं है अतः इन भावोंकी सत्ता अनन्तवीर्य और अव्याबाध सुस्वके रूप में ही रहती है। कहा भी है-अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान, अनन्त गश्वर्य, अनन्तवीर्य और परमसूक्ष्मता जहाँ पाई जाय वही मोक्ष है। __ मिश्रभावके भेदज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्थित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाच ॥शा ___ भति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, कुमति कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान, चक्षुदशन अचक्षुदर्शन और अवधिदशन ये तीन दर्शन, क्षायोपर्शामक दान, लाभ भोग, उपभोग और वीयं च पांच लन्धि, भायोपमिक सम्यक्त्व, क्षायापमिक चारित्र और संयमानमय ये क्षायोपशामक भात्र हैं। अनन्तानुबन्धो क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्य और सम्यग्मिथ्यात्व इन सर्वघाति प्रकृतियोंके उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदय आने वाले उक्त प्रकृतियों के निपेकों का सदयस्थारूप उपशम और सम्यक्त्वप्रकृतिके उदय होने पर क्षायोपमिक सम्यक्त्व हाता है। अनन्तानुबन्धी आदि बारह कपायोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उद्यमे आनेवाले इन्हीं प्रकृतियोंके निपेकोंका सदवस्थारूप उपशम और संज्वलन तथा नव नांकषायका उदय हान पर क्षायोपशमिक चारित्र होता है। 'अनन्तानुबन्धी आदि आठ कपायोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदयमं आनेवाल इन्हीं प्रकृतियों के निपेकोंका सदवस्था रूप उपशम और प्रत्याख्यानावरण आदि सत्रह कपायोंका उदय होनस संग्रमासंयम होता है। सूत्रम आय हुए च शब्दसे संज्ञित्व और सम्यग्मिथ्यात्वका प्रण किया गया है।
SR No.090502
Book TitleTattvarthvrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinmati Mata
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages648
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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